उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

सांस्कृतिक परंपरा का पर्व : कुल्लू दशहरा

दशहरे की धूम तो देश भर में है, लेकिन कुछ जगह के दशहरा अपनी खास पहचान के लिए प्रसिद्ध हैं। ऐसी ही खास पहचान है कुल्लू के दशहरे की, जहां इस दौरान पर्यटक दूर-दूर से आते हैं और इस मौके का आनन्द उठाते हैं। विजय दशमी से शुरू होकर सप्ताह भर बाद तक मनाया जाने वाला यह त्योहार सम्पूर्ण कुल्लू घाटी को उत्सव के रंग से सराबोर कर देता है। इस अवसर पर लगने वाले ऐतिहासिक मेले में कुल्लू की प्राचीन परंपरा, समृद्ध इतिहास और गौरवपूर्ण लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम इस दौरान कुल्लू घाटी की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं।

अंतरराष्ट्रीय है चमककुल्लू दशहरा अब अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल कर चुका है। इसके प्रति उत्साह सिर्फ स्थानीय लोगों में ही नहीं, बल्कि विदेशियों में भी देखने को मिलता है। यही वजह है कि इस अवसर पर कुल्लू घाटी में विदेशी सैलानियों का जमावड़ा लग जाता है। यहां काफी संख्या में भारतीय पर्यटक तो आते ही हैं, इस दौरान यहां अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा और जर्मनी से भी काफी संख्या में पर्यटक आते हैं। दिलचस्प यह भी है कि विदेशी पर्यटक यहां के परिधान पहन कर मौके का भरपूर आनन्द उठाते हैं।

 होता है रामलीला का मंचनइस अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठान तो होते ही हैं, मैदानी इलाकों में रामलीला का भी मंचन किया जाता है। इस अवसर पर लोकनृत्य, लोकगीत और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा भगवान राम की स्तुति की जाती है। 

पारंपरिक कला शिल्प की छटा 
कुल्लू दशहरा के अवसर पर धालपुर मैदान में स्थानीय कला-शिल्प के स्टॉल्स लगाए जाते हैं। अगर आपको स्थानीय क्राफ्ट पसंद हैं तो यहां से शाल जैसा दिखने वाला पट्टू (कुल्लू-महिलाओं का परंपरागत परिधान) भी ले सकते हैं और कुल्लू टोपियां, मफलर आदि भी। 


निकलती हैं शानदार झांकियां
कुल्लू दशहरे की एक खासियत है कि यह विजय दशमी के दिन से आरम्भ होकर अगले सात दिनों तक मनाया जाता है। दशहरा मेले का शुभारंभ देवी हिडिम्बा द्वारा किया जाता है। कुल्लू घाटी में हिडिम्बा का प्राचीन मंदिर स्थित है। दशहरा मेले की शुरुआत घाटी में आकर्षक तरीके से सजाई गई रघुनाथ जी की पालकी (रथ) की झांकी निकाल कर की जाती है। राजा का सुसज्जित घोड़ा जुलूस की अगवानी करता है। अन्य ग्रामीण देवी-देवता इस रथ के पीछे चलते हैं। बाद में रघुनाथ जी की पालकी को धालपुर मैदान में लाया जाता है। इस दौरान गीत-संगीत की स्वर लहरियां पूरी घाटी में गूंजती रहती हैं। 


भव्य होता है समापन
उत्सव के सातों दिन लोकनृत्य, लोकगीत और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है। त्योहार का छठा दिन ‘मुहल्ला’ कहलाता है। इस दिन लोग देवताओं की मूर्तियों को कंधों पर रख कर नाचते हैं। अगले दिन रधुनाथ जी के दरबार में अपनी हाजिरी देने के बाद सभी देवता आज्ञा लेकर अपने-अपने मूल स्थानों को लौट जाते हैं। सातवें दिन ‘लंका दहन’ का आयोजन होता है। व्यास नदी के तट पर घास-फूस से बनी लंका को हर्षोल्लास के साथ जलाया जाता है। वैसे तो इस अवसर पर मिट्टी के रावण की प्रतिमा का सिर धड़ से अलग करने की परंपरा भी चली आ रही है, लेकिन अब कुल्लू दशहरे में भी रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने का चलन शुरू हो गया है। यानी आप इस मौके पर कुल्लू की खूबसूरत वादियों के साथ-साथ इस त्योहार को भी देख सकते हैं।


साभार : अशोक वशिष्ठ, हिन्दुस्तान