उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

सोमवार, 24 अगस्त 2009

महिमा अपरम्पार है भगवान गणेश की

भारतीय संस्कृति में भगवान गणेश को आदि देवता माना गया है.उनका पूजन किए बगैर कोई कार्य प्रारम्भ नहीं होता।गणपति विघ्नहर्ता हैं, इसलिए नौटंकी से लेकर विवाह की एवं गृह प्रवेश जैसी समस्त विधियों के प्रारंभ में गणेश पूजन किया जाता है।
पत्र अथवा अन्य कुछ लिखते समय सर्वप्रथम॥ श्री गणेशाय नमः॥, ॥श्री सरस्वत्यै नमः॥, ॥श्री गुरुभ्यो नमः॥ ऐसा लिखने की प्राचीन पद्धति थी। ऐसा ही क्रम क्यों बना? किसी भी विषय का ज्ञान प्रथम बुद्धि द्वारा ही होता है व गणपति बुद्धि दाता हैं, इसलिए प्रथम '॥ श्री गणेशाय नमः ॥' लिखना चाहिए। विघ्न हरण करने वाले देवता के रूप में पूज्य गणेश जी सभी बाधाओं को दूर करने तथा मनोकामना को पूरा करने वाले देवता हैं। श्री गणेश निष्कपटता, विवेकशीलता, अबोधिता एवं निष्कलंकता प्रदान करने वाले देवता हैं। उनके ध्यानमात्र से व्यक्ति उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर होता है। जहाँ तक सामान्यजन का सवाल है, वह आज भी चरम आस्तिक भाव से 'ॐ गणानां त्वां गणपति गुं हवामहे' का पाठ करके सुरक्षा-समृद्धि का एक भाव पा लेता है, जो किसी भी देव की आराधना का शायद मूल कारण है।

गणपति विवेकशीलता के परिचायक है। गणपति का वर्ण लाल है; उनकी पूजा में लाल वस्त्र, लाल फूल व रक्तचंदन का प्रयोग किया जाता है। हाथी के कान हैं सूपा जैसे सूपा का धर्म है 'सार-सार को गहि लिए और थोथा देही उड़ाय' सूपा सिर्फ अनाज रखता है। हमें कान का कच्चा नहीं सच्चा होना चाहिए। कान से सुनें सभी की, लेकिन उतारें अंतर में सत्य को। आँखें सूक्ष्म हैं जो जीवन में सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती हैं। नाक बड़ा यानि दुर्गन्ध (विपदा) को दूर से ही पहचान सकें। गणेशजी के दो दाँत हैं एक अखण्ड और दूसरा खण्डित। अखण्ड दांत श्रद्धा का प्रतीक है यानि श्रद्धा हमेशा बनाए रखना चाहिए। खण्डित दाँत है बुद्धि का प्रतीक इसका तात्पर्य एक बार बुद्धि भ्रमित हो, लेकिन श्रद्धा न डगमगाए। गणेश जी के आयुध औश्र प्रतीकों से अंकुश हैं, वह जो आनंद व विद्या की प्राप्ति में बाधक शक्तियों का नाश करता है। कमर से लिपटा नाग अर्थात विश्व कुंडलिनी
और लिपटे हुए नाग का फन अर्थात जागृत कुंडलिनी. मूषक अर्थात्‌ रजोगुण, गणपति के नियंत्रण में है।

मोदक गणेश जो को बहुत प्रिय है, पर सांसारिक दुनिया से परे इसका भी आध्यात्मिक भाव है.'मोद' यानी आनंद व 'क' का अर्थ है छोटा-सा भाग। अतः मोदक यानी आनंद का छोटा-सा भाग। मोदक का आकार नारियल समान, यानी 'ख' नामक ब्रह्मरंध्र के खोल जैसा होता है। कुंडलिनी के 'ख' तक पहुँचने पर आनंद की अनुभूति होती है। हाथ में रखे मोदक का अर्थ है कि उस हाथ में आनंद प्रदान करने की शक्ति है। 'मोदक मान का प्रतीक है, इसलिए उसे ज्ञानमोदक भी कहते हैं। आरंभ में लगता है कि ज्ञान थोड़ा सा ही है (मोदक का ऊपरी भाग इसका प्रतीक है।), परंतु अभ्यास आरंभ करने पर समझ आता है कि ज्ञान अथाह है। (मोदक का निचला भाग इसका प्रतीक है।) जैसे मोदक मीठा होता। वैसे ही ज्ञान से प्राप्त आनंद भी।'

आजादी की लड़ाई के दौर में भी भगवान गणेश से प्राप्त अभय के वरदान से सज्जित होने की भावना ने समूचे स्वतंत्रता आंदोलन को एक नया आयाम दे दिया था। बाल गंगाधर तिलक ने स्वतंत्रता को राजनीतिक संदर्भों से उबारकर देश की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक-चेतना से जोड़ा था। सौ साल से भी अधिक काल से चली आ रही यह सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक चेतना की त्रिवेणी हर साल गणेशोत्सव के अवसर पर नए-नए रूपों में सामने आती है। लोकमान्य तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव की जो परंपरा शुरू की थी वह फल-फूल रही है।

गणेशोत्सव धर्म, जाति, वर्ग और भाषा से ऊपर उठकर सबका उत्सव बन गया है । गणपति बप्पा मोरया का स्वर जब गूँजता है तो उसमें हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों की सम्मिलित आस्था का वेग होता है । किसी गोविंदा और किसी सलमान के घर में गणपति की एक जैसी आरती का होना कुल मिलाकर उस एकात्मकता का ही परिचय देता है जो हमारे देश की एक विशिष्ट पहचान है। साल-दर-साल गणेशोत्सव पर इस विशिष्टता का रेखांकित होना अपने आप में एक आश्वस्ति है।

गणेशोत्सव के अवसर पर एक और महत्वपूर्ण तथ्य भी रेखांकित होना चाहिए- गणेश अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजगता एवं सक्रियता के देवता भी हैं । इसलिए जब हम गणपति की पूजा करते हैं तो इसका अर्थ स्वयं को उस चेतना से जोड़ना भी है जो जीवन को परिभाषित भी करती है और उसे अर्थवत्ता भी देती है। यह चेतना अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति जागरूकता देती है और अपने कर्तव्यों को पूरा करने की प्रेरणा भी।

गणेश चतुर्थी: गणपति महाराज का जन्मदिन

भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी ही गणेश चतुर्थी कहलाती है। श्री गणेशजी विघ्न विनाशक हैं। इन्हें देवसमाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। श्री भगवान गणेश रिद्धि-सिद्धि के दाता देवताओं के भी देव हैं। प्रथम पूज्य गणेश मनुष्य तो क्या देवताओं के भी कार्य सिद्ध करने के लिए आदि, अनंत, अखंड, अद्वैत, अभेद, सुभेद जिनको वेदों ने, ‍ऋषियों ने, संतों ने, प्रखंड विद्वानों ने प्रथम पूज्य बताया है। वे सभी देवताओं में प्रथम पूज्य रहे हैं।

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेशजी का जन्म हुआ था। श्री गणेशजी बुद्धि के देवता हैं। गणेशजी का वाहन चूहा है। ऋद्धि तथा सिद्धि इनकी दो पत्नियाँ हैं। इनका सर्वप्रिय भोग मोदक (लड्डू) है। इस दिन रात्रि में चंद्रमा का दर्शन करने से मिथ्या कलंक लग जाता है।

गणेश चतुर्थी व्रत कैसे करें*
इस दिन प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएँ।
* पश्चात 'मम सर्वकर्मसिद्धये सिद्धिविनायक पूजनमहं करिष्ये' मंत्र से संकल्प लें।
* इसके बाद सोने, तांबे, मिट्टी अथवा गोबर से गणेशजी की प्रतिमा बनाएँ।
* गणेशजी की इस प्रतिमा को कोरे कलश में जल भरकर मुँह पर कोरा कपड़ा बाँधकर उस पर स्थापित करें।
* पश्चात मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाकर षोड्शोपचार से उनका पूजन करें।
* इसके बाद आरती करें। आरती के लिए क्लिक करें।
* फिर दक्षिणा अर्पित करके 21 लड्डुओं का भोग लगाएँ। इनमें से पाँच लड्डू गणेशजी की प्रतिमा के पास रखकर शेष ब्राह्मणों में बाँट दें।

गणेश चतुर्थी व्रत में सावधानियाँ*
गणेशजी की पूजा सायंकाल के समय की जानी चाहिए।
* पूजनोपरांत नीची नजर से चंद्रमा को अर्घ्य देकर ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा भी देनी चाहिए। नीची नजर से चंद्रमा को अर्घ्य देने का तात्पर्य है कि जहाँ तक संभव हो, इस दिन (भाद्रपद चतुर्थी को) चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए। इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से कलंक का भागी बनना पड़ता है। यदि सावधानी बरतने के बावजूद चंद्र दर्शन हो ही जाएँ तो फिर स्यमन्तक की कथा सुनने से कलंक का प्रभाव नहीं रहता।

गणेश चतुर्थी व्रत फल
वस्त्र से ढंका हुआ कलश, दक्षिणा तथा गणेश प्रतिमा आचार्य को समर्पित करके गणेशजी के विसर्जन का उत्तम विधान माना गया है। गणेशजी का यह पूजन करने से बुद्धि और ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, विघ्न-बाधाओं का भी समूल नाश हो जाता है।

रविवार, 23 अगस्त 2009

हरितालिका तीज : अखंड सौभाग्य की कामना का व्रत

अखंड सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियाँ हरतालिका तीज का विशिष्ट व्रत रखती हैं। यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है। 'हर' शिव का ही एक नाम है और चूँकि शिव आराधना इस व्रत का मूलाधार है, इसलिए इसका नाम हरतालिका व्रत रखा गया। जहाँ तक 'हरि' का सवाल है, यह भगवान विष्णु का एक नाम है।

हरितालिका को लेकर भी पौराणिक कथाएँ उपलब्ध हैं, जिनके अनुसार पार्वतीजी ने एक बार सखियों द्वारा 'हरित' यानी अपहृत होकर एक कन्दरा में इस व्रत का पालन किया था, इसलिए कालांतर में इसका नाम हरितालिका प्रसिद्ध हुआ। इस व्रत के लिए हरतालिका या हरितालिका दोनों ही शब्दों का उपयोग किया जाता है। ग्रंथों में भी दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है।

हरतालिका व्रत सभी पापों एवं सांसारिक तापों का हरण करने वाला माना गया है। शास्त्रों में इस व्रत के बारे में कहा गया है कि यह व्रत 'हरित पापान सांसारिकान क्लेशाञ्च', अर्थात यह व्रत संसार के सभी क्लेश, कलह और पापों से मुक्ति दिलाता है। यह शिव-पार्वती की आराधना का सौभाग्य व्रत है, जो केवल महिलाओं के लिए है। निर्जला एकादशी व्रत की तरह हरतालिका तीज का व्रत भी निराहार और निर्जल रहकर किया जाता है। रात्रि में शिव-गौरी पूजन किया जाता है और रात्रि जागरण की भी प्रथा है। दूसरे दिन अन्ना-जल ग्रहण किया जाता है।

ऐसी पौराणिक मान्यता है कि यह व्रत सर्वप्रथम पार्वतीजी ने भगवान शिव से विवाह करने के लिए किया था। यह भी एक सुखद संयोग था कि माँ पार्वती की मनोकामना इसी दिन पूरी हुई थी। तभी से स्त्रियाँ पति में अचल भक्ति हेतु और इसके पूर्व मनोवांच्छित वर की प्राप्ति हेतु यह व्रत करती आई हैं। इस व्रत को कन्याएं भी करती हैं, ताकि वे अपनी इच्छानुसार पति प्राप्त कर सकें।

इस व्रत में आठ प्रहर उपवास करने के बाद भोजन करने का विधान है। इस व्रत का फल 'अवैधव्यकारा स्त्रीणा पुत्र-पौत्र प्रर्वधिनी' बताया गया है। अर्थात संपूर्ण सांसारिक जीवन में कुशल-मंगल हेतु इस व्रत को विधि-विधान से करने का सुझाव दिया गया है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार हरतालिका तीज के दिन ही भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को ही 'हस्तगौरी', 'हरिकाली' और 'कोटेश्वरी' या 'कोटीश्वरी' व्रत भी किया जाता है। या कहें कि हरतालिका व्रत इन नामों से भी विख्यात है, जिसमें आदि शक्ति माँ पार्वती का गौरी के रूप में पूजन होता है।

भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को ही हस्तगौरी व्रत का अनुष्ठान होता है। महाभारत काल में इस व्रत को करने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने राज्य की प्राप्ति के लिए, धन-धान्य के लिए कुंती को यह व्रत करने को कहा था। इसमें तेरह वर्षों तक शिव-पार्वती व श्रीगणेश में ध्यान लगाना पड़ता है और चौदहवें वर्ष में इस व्रत का उद्यापन किया जाता है।
(डॉ. आर.सी.ओझा)

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

सृजनशील जीवन का संदेश देती कृष्ण जन्माष्टमी

जब-जब भी धरती पर अत्याचार बढ़ा है व धर्म का पतन हुआ है तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया। चूँकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी अथवा जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इस दिन स्त्री-पुरुष रात्रि बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झाँकियाँ सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है।

पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगती तल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात को आज पाँच सहस्र वर्ष हो गए। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे। केवल सन्देश ही नहीं, कुछ और भी लाए। वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आए। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आए। इस जीर्ण-शीर्ण रक्तप्लावित भूमि में एक स्वप्न लेकर आए। जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं कितने ऐसे हैं जो इस विनश्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर-स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं?
श्रीकृष्ण गोकुल और वृन्दावन में मधुर-मुरली के मोहक स्वर में कुरुक्षेत्र युद्धक्षेत्र में (गीता रूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया जो नाम-रूप, रूढ़ि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृद-मित्र कुटुम्ब-परिवार, आचार-व्यवहार और कीर्ति अपकीर्ति ये सब नाम-रूप ही तो हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इन सबसे उपर उठने को कहा, व्यष्टि से उठकर समष्टि में अर्थात सनातन तत्त्व की ओर जाने का उपदेश दिया। वही सनातन तत्त्व आत्मा है। 'तत्त्वमसि'!मनुष्य- ! तू आत्मा है ! परमात्मा प्राण है ! मोह रज्जु से बंधा हुआ ईश्वर है! चौरासी के चक्कर में पड़ा हुआ चैतन्य है! क्या यही गीता के उपदेश का सार नहीं है? मेरे प्यारे बन्धुओं! क्या हम और आप सभी सान्त से अनन्त की ओर नहीं जा रहे हैं। क्या तुम भगवान को खोजते हो? अपने हृदय वल्लभ की टोह में हो? यदि ऐसा है तो उसे अपने अन्दर खोजो। वहीं तुम्हें वह प्रियतम मिलेगा

सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं श्री कृष्ण

विगत पांच हजार वर्षों में श्रीकृष्ण जैसा अद्भुत व्यक्तित्व भारत क्या, विश्व मंच पर नहीं हुआ और न होने की संभावना है। यह सौभाग्य व पुण्य भारत भूमि को ही मिला है कि यहाँ एक से बढकर एक दिव्य पुरूषों ने जन्म लिया। इनमें श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अनूठा, अपूर्व और अनुपमेय है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी भारत वर्ष के कोने-कोने में श्रीकृष्ण का पावन जन्मदिन अपार श्रद्धा, उल्लास व प्रेम से मनाया जाता है। श्रीकृष्ण अतीत के होते हुए भी भविष्य की अमूल्य धरोहर हैं। उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी है कि उन्हें पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है। मुमकिन है कि भविष्य में उन्हें समझा जा सकेगा। हमारे अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों व ऊंचाइयों पर जाकर भी गंभीर या उदास नहीं हैं। श्रीकृष्ण उस ज्योतिर्मयी लपट का नाम है जिसमें नृत्य है, गीत है, प्रीति है, समर्पण है, हास्य है, रास है, और है जरूरत पड़ने पर युद्ध का महास्वीकार। धर्म व सत्य के रक्षार्थ महायुद्ध का उद्घोष। एक हाथ में वेणु और दूसरे में सुदर्शन चक्र लेकर महाइतिहास रचने वाला दूसरा व्यक्तित्व नहीं हुआ संसार में।


कृष्ण ने कभी कोई निषेध नहीं किया। उन्होंने पूरे जीवन को समग्रता के साथ स्वीकारा है। प्रेम भी किया तो पूरी शिद्दत के साथ, मैत्री की तो सौ प्रतिशत निष्ठा के साथ और युद्ध के मैदान में उतरे तो पूरी स्वीकृति के साथ। हाथ में हथियार न लेकर भी विजयश्री प्राप्त की। भले ही वो साइड में रहे। सारथी की जिम्मेदारी संभाली पर कौन नहीं जानता कि अर्जुन के पल-पल के प्रेरणा स्त्रोत और दिशा निर्देशक कृष्ण थे।

अल्बर्ट श्वाइत्जर ने भारतीय धर्म की आलोचना में एक बात बड़ी मूल्यवान कही। वह यह कि भारत का धर्म जीवन निषेधक है। यह बात एकदम सत्य है, यदि कृष्ण का नाम भुला दिया जाए तो ओशो के शब्दों में कृष्ण अकेले दुख के महासागर में नाचते हुए एक छोटे से द्वीप हैं। यानी कि उदासी, दमन, नकारात्मकता और निंदा के मरूस्थल में नाचते-गाते मरू-उद्यान हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि कृष्ण केवल रास रचैया भर थे। इन लोगों ने रास का अर्थ व मर्म ही नहीं समझा है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। संपूर्ण ब्राह्मांड में जो विराट नृत्य चल रहा है प्रकृति और पुरूष (परमात्मा) का, श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ नृत्य उस विराट नृत्य की एक झलक मात्र है। उस रास का कोई सामान्य या सेक्सुअल मीनिंग नहीं है। कृष्ण पुरूष तत्व है और गोपिकाएं प्रकृति। प्रकृति और पुरूष का महानृत्य है यह। विराट प्रकृति और विराट पुरूष का महारस है यह, तभी तो हर गोपी को महसूस होता है कि कृष्ण उसी के साथ नृत्यलीन हैं। यह कोई मनोरंजन नहीं, पारमार्थिक है।

कृष्ण एक महासागर हैं। वे कोई एक नदी या लहर नहीं, जिसे पकड़ा जा सके। कोई उन्हें बाल रूप से मानता है, कोई सखा रूप में तो कोई आराध्य के रूप में। किसी को उनका मोर मुकुट, पीतांबर भूषा, कदंब वृक्ष तले, यमुना के तट पर भुवनमोहिनी वंशी बजाने वाला, प्राण वल्लभा राधा के संग साथ वाला प्रेम रूप प्रिय है, तो किसी को उनका महाभारत का महापराक्रमी रणनीति विशारद योद्धा का रूप प्रिय है। एक ओर हैं-
वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात्,
पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्,
पूर्णेंदु संुदर मुखादरविंदनेत्रात्,
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने।।

तो दूसरी ओर-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।।
वस्तुतः श्रीकृष्ण पूर्ण पुरूष हैं। पूर्णावतार सोलह कलाओं से युक्त उनको योगयोगेश्वर कहा जाता है और हरि हजार नाम वाला भी।

आज देश के युवाओं को श्रीकृष्ण के विराट चरित्र के बृहद अध्ययन की जरूरत है। राजनेताओं को उनकी विलक्षण राजनीति समझने की दरकार है और धर्म के प्रणेताओं, उपदेशकों को यह समझने की आवश्यकता है कि श्रीकृष्ण ने जीवन से भागने या पलायन करने या निषेध का संदेश कभी नहीं दिया। वे महान योगी थे तो ऋषि शिरोमणि भी। उन्होंने वासना को नहीं, जीवन रस को महत्व दिया। वे मीरा के गोपाल हैं तो राधा के प्राण बल्लभ और द्रोपदी के उदात्त सखा मित्र। वे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान और सर्व का कल्याण व शुभ चाहने वाले हैं। अति रूपवान, असीम यशस्वी और सत् असत् के ज्ञाता हैं। जिसने भी श्रीकृष्ण को प्रेम किया या उनकी भक्ति में लीन हो गया, उसका जन्म सफल हो गया। धर्म, शौय और प्रेम के दैदीप्यमान चंद्रमा श्रीकृष्ण को कोटि कोटि नमन।
यतो सत्यं यतो धर्मों यतो हीरार्जव यतः !
ततो भवति गोविंदो यतः श्रीकृष्णस्ततो जयः !!


सत्या सक्सेना

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

अटूट विश्वास का बन्धन है राखी

रक्षाबन्धन भारतीय सभ्यता का एक प्रमुख त्यौहार है जो कि श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को राखी बाँधती है। भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षा बन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि- ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’- अर्थात ‘सूत्र’ अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा-सूत्र (राखी) भी लोगों को जोड़ता है। गीता में ही लिखा गया है कि जब संसार में नैतिक मूल्यों में कमी आने लगती है, तब ज्योर्तिलिंगम भगवान शिव प्रजापति ब्रह्मा द्वारा धरती पर पवित्र धागे भेजते हैं, जिन्हें बहनें मंगलकामना करते हुए भाइयों को बाँधती हैं और भगवान शिव उन्हें नकारात्मक विचारों से दूर रखते हुए दुख और पीड़ा से निजात दिलाते हैं।
राखी का सर्वप्रथम उल्लेख पुराणों में प्राप्त होता है जिसके अनुसार असुरों के हाथ देवताओं की पराजय पश्चात अपनी रक्षा के निमित्त सभी देवता इंद्र के नेतृत्व में गुरू वृहस्पति के पास पहुँचे तो इन्द्र ने दुखी होकर कहा- ‘‘अच्छा होगा कि अब मैं अपना जीवन समाप्त कर दूँ।’’ इन्द्र के इस नैराश्य भाव को सुनकर गुरू वृहस्पति के दिशा-निर्देश पर रक्षा-विधान हेतु इंद्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र सहित समस्त देवताओं की कलाई पर रक्षा-सूत्र बाँधा और अंततः इंद्र ने युद्ध में विजय पाई। एक अन्य कथानुसार राजा बालि को दिये गये वचनानुसार भगवान विष्णु बैकुण्ठ छोड़कर बालि के राज्य की रक्षा के लिये चले गये । तब देवी लक्ष्मी ने ब्राह्मणी का रूप धर श्रावण पूर्णिमा के दिन राजा बालि की कलाई पर पवित्र धागा बाँधा और उसके लिए मंगलकामना की। इससे प्रभावित हो बालि ने देवी को अपनी बहन मानते हुए उसकी रक्षा की कसम खायी। तत्पश्चात देवी लक्ष्मी अपने असली रूप में प्रकट हो गयीं और उनके कहने से बालि ने भगवान इन्द्र से बैकुण्ठ वापस लौटने की विनती की।

त्रेता युग में रावण की बहन शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा नाक कटने के पश्चात रावण के पास पहुँची और रक्त से सनी साड़ी का एक छोर फाड़कर रावण की कलाई में बाँध दिया और कहा कि- ‘‘भैया! जब-जब तुम अपनी कलाई को देखोगे तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटनेवालों से तुम बदला ले सकोगे।’’ इसी प्रकार महाभारत काल में भगवान कृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने व फिर खून की धारा फूट पड़ने पर द्रौपदी ने तत्काल अपनी कंचुकी का किनारा फाड़कर भगवान कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में दुःशासन द्वारा द्रौपदी-हरण के प्रयास को विफल कर उन्होंने इस रक्षा-सूत्र की लाज बचायी। द्वापर युग में ही एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि वह महाभारत के युद्ध में कैसे बचेंगे तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया- ‘‘राखी का धागा ही तुम्हारी रक्षा करेगा।’’
ऐतिहासिक युग में भी सिंकदर व पोरस ने युद्ध से पूर्व रक्षा-सूत्र की अदला-बदली की थी। युद्ध के दौरान पोरस ने जब सिकंदर पर घातक प्रहार हेतु अपना हाथ उठाया तो रक्षा-सूत्र को देखकर उसके हाथ रूक गए और वह बंदी बना लिया गया। सिकंदर ने भी पोरस के रक्षा-सूत्र की लाज रखते हुए और एक योद्धा की तरह व्यवहार करते हुए उसका राज्य वापस लौटा दिया। मुगल काल के दौर में जब मुगल समा्रट हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर अपनी रक्षा का वचन लिया। हुमायँू ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख़्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु गुजरात के बादशाह से भी युद्ध किया। इसी प्रकार न जाने कितनी मान्यतायें रक्षा बन्धन से जुड़ी हुयी हैं।

लोक परम्परा में रक्षाबन्धन के दिन परिवार के पुरोहित द्वारा राजाओं और अपने यजमानों के घर जाकर सभी सदस्यों की कलाई पर मौली बाँधकर तिलक लगाने की परम्परा रही है। पुरोहित द्वारा दरवाजों, खिड़कियों, तथा नये बर्तनों पर भी पवित्र धागा बाँधा जाता है और तिलक लगाया जाता है। यही नहीं बहन-भानजों द्वारा एवं गुरूओं द्वारा शिष्यों को रक्षा सूत्र बाँधने की भी परम्परा रही है। राखी ने स्वतंत्रता-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। कई बहनों ने अपने भाईयों की कलाई पर राखी बाँधकर देश की लाज रखने का वचन लिया। 1905 में बंग-भंग आंदोलन की शुरूआत लोगों द्वारा एक-दूसरे को रक्षा-सूत्र बाँधकर हुयी।

राखी से जुड़ी एक मार्मिक घटना क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के जीवन की है। आजाद एक बार तूफानी रात में शरण लेने हेतु एक विधवा के घर पहुँचे। पहले तो उसने उन्हंे डाकू समझकर शरण देने से मना कर दिया पर यह पता चलने पर कि वह क्रांतिकारी आजाद है,ं ससम्मान उन्हें घर के अंदर ले गई। बातचीत के दौरान आजाद को पता चला कि उस विधवा को गरीबी के कारण जवान बेटी की शादी हेतु काफी परेशानियाँ उठानी पड़ रही हैं तो उन्होंने द्रवित होकर उससे कहा- श्मेरी गिरफ्तारी पर 5000 रूपये का इनाम है, तुम मुझे अंग्रेजों को पकड़वा दो और उस इनाम से बेटी की शादी कर लो।श् यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- श्भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखकर चल रहे हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। अतः मै ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.'' यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँधकर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखंे खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- श्अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।''
देश के विभिन्न अंचलों में राखी पर्व को भाई-बहन के त्यौहार के अलावा भी भिन्न-भिन्न तरीकों से मनाया जाता है। मुम्बई के कई समुद्री इलाकों में इसे नारियल-पूर्णिमा या कोकोनट-फुलमून के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन विशेष रूप से समुद्र देवता पर नारियल चढ़ाकर उपासना की जाती है और नारियल की तीन आँखों को शिव के तीन नेत्रों की उपमा दी जाती है। बुन्देलखण्ड में राखी को कजरी-पूर्णिमा या कजरी-नवमी भी कहा जाता है। इस दिन कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है। उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में राखी-पर्व पर बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा में ‘बग्वाल’ कहते हैं। सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि इस युद्ध में आज तक कोई भी गम्भीर रूप से घायल नहीं हुआ और न ही किसी की मृत्यु हुई। इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा सर्वाधिक भाग्यवान माना जाता है एवं युद्ध समाप्ति पश्चात पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर आर्शीवाद देते हैं। इसके बाद युद्ध बन्द हो जाता है और योद्धाओं का मिलन समारोह होता है।
एक रोचक घटनाक्रम में हरियाणा राज्य में अवस्थित कैथल जनपद के फतेहपुर गाँव में सन् 1857 में एक युवक गिरधर लाल को रक्षाबन्धन के दिन अंग्रेजों ने तोप से बाँधकर उड़ा दिया, इसके बाद से गाँव के लोगों ने गिरधर लाल को शहीद का दर्जा देते हुए रक्षाबन्धन पर्व मनाना ही बंद कर दिया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 150 वर्ष पूरे होने पर सन् 2006 में जाकर इस गाँव के लोगों ने इस पर्व को पुनः मनाने का संकल्प लिया।

रक्षाबन्धन हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तों का अंग है। आज जरुरत है कि आडम्बरता की बजाय इस त्यौहार के पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।