उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

मैसूर का दशहरा और 'गोम्बे हब्बा' (गुड़ियों का उत्सव)

मैसूर में दशहरे की परंपराओं के साथ यहां का 'गोम्बे हब्बा' (गुड़ियों का उत्सव) विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यह परंपरा मैसूरवासियों के लिए खासी महत्वपूर्ण रही है। यह उसी समय से चली आ रही है जिस समय वाडेयार राजघराने के शासक मैसूर की सत्ता पर आसीन थे। इस नजरिए से मैसूरवासियों की संवेदनाएं तथा बेहतर भावनाएं भी इस परंपरा के साथ काफी करीबी से जुड़ी हुई हैं। बहरहाल, इन दिनों गुड़ियों के मेले को पहले की तरह राजकीय घराने का पृष्ठपोषण न मिल पाने से इसके आकर्षण में कुछ कमी जरूर दिखने लगी है।

उल्लेखनीय है कि गोम्बे हब्बा नवरात्रि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो मैसूर के साथ ही लगभग पूरे राज्य में काफी पसंद किया जाता है। दशहरे के मौके पर प्रत्येक घर में गुड़ियों का मेला जरूर देखने को मिल जाता है। मैसूर पैलेस बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक, इस परंपरा में काफी गहरा अर्थ छिपा है। गोम्बे हब्बा के तहत नौ गुड़ियों की सजावट की जाती है जो देवी दुर्गा या चामुंडेश्वरी के नौ रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन नौ गुड़ियों में महिलाओं की हस्तकला दक्षता की झलक भी मिलती है। कलात्मक रूप से देखा जाए तो पुराने मैसूर में इन गुड़ियों की काफी बारीक सजावट की जाती थी। आम तौर पर घरेलू महिलाएं इन गुड़ियों को तैयार किया करती थीं। इनमें दशहरे के उत्सवी माहौल की झलक देखने का प्रयास भी किया जाता था। बताया जाता है कि यह परंपरा 16वीं सदी के वाडेयार शासक राजा वाडेयार के समय में शुरू हुई थी।

शुरुआती तौर पर गोम्बे हब्बा में देवी गौरी की आकृतियों को प्रतिमाओं में संवारने का प्रयास किया जाता था। दशहरे के नौ दिनों के दौरान इन प्रतिमाओं को देवी दुर्गा के नौ अलग-अलग कल्पित रूप दिए जाते थे। लोग अपने घरों में इन्हीं प्रतिमाओं की पूजा भी किया करते थे। 18 वीं शताब्दी के अंत में यह परंपरा थोड़ी-सी बदल गई। वाडेयार शासकों ने प्रतिमाओं के स्थान पर गुड़ियों की सजावट शुरू कर दी। इसके साथ ही गोम्बे हब्बा की शुरुआत मानी जाती है। राजपरिवार के लोगों ने भी देवी दुर्गा की गुड़ियों में खासी दिलचस्पी लेने लगे। यहां तक, कि मैसूर राजमहल में ही एक खास स्थान गुड़ियों को बनाने तथा उन्हें करीने से सजाने के लिए चिह्नित कर दिया गया। इस स्थान को 'गोम्बे तोट्टी' के नाम से जाना जाता था।

पहले-पहल तो दशहरे का महोत्सव राज परिवार के लोगों के लिए ही हुआ करता था लेकिन आगे चलकर इसे आम लोगों के लिए भी शुरू कर दिया गया। फिर भी, एकबारगी सबको इस उत्सव में शामिल नहीं किया गया। सिर्फ राजदरबार के उच्च-पदस्थ लोगों को ही दशहरे के त्यौहार में शामिल किया गया। धीरे-धीरे कुछेक दशकों बाद इसे सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा। गोम्बे हब्बा के दौरान घरों के बच्चों को (खास तौर पर कन्याओं को) जो गुड़िया सबसे अधिक पसंद होती थी वह उनकी शादी के समय माता-पिता उनके साथ दे दिया करते थे। उन दिनों विवाहित किशोरियों के बीच गुड़ियों के साथ खेलना पसंद किया जाता था। इस परंपरा ने भी गोम्बे हब्बा को पूरे राज्य में अधिक लोकप्रियता दिला दी। इसमें घरों के बच्चे बहुत ही जोश के साथ भाग लिया करते थे क्योंकि गुड़ियों के चयन तथा उनकी सजावट के मामलों में घरों के बड़े-बुजुर्ग बच्चों के साथ जरूर सलाह-मशविरा किया करते थे। इससे गोम्बे हब्बा में उनकी मस्ती दोगुनी हो जाती थी।

वर्तमान में घरों में आयोजित किए जाने वाले इस गोम्बे हब्बा में गुड़ियों को नौ स्तरों पर सजाया जाता है। प्रत्येक दिन नई गुड़िया बनाकर उसे पिछले दिनों की गुड़ियों के साथ शामिल किया जाता है। इन्हें देवी दुर्गा के नौ नामों शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिध्दिरात्रि के नामों से ही पुकारा जाता है। माना जाता है कि यह गुड़ियाएं दैवी स्वरूप धारण कर अशुभ आत्माओं से परिवारों की रक्षा करती हैं।

वाडेयार शासकों का राज्यकाल समाप्त होने के बाद गुड़िया बनाने की कला को पर्याप्त पृष्ठपोषण न मिलने के कारण इनके कलात्मक पक्ष पर अब किसी की नजर लगभग नहीं के बराबर पड़ती है। गुड़िया बनाने की इस कला को प्रोत्साहन देने के लिए शहर की एक कला दीर्घा ने दशहरे के दौरान 'बोम्बे मने-2009' के नाम से एक विशेष उत्सव का आयोजन किया है। इस उत्सव में कर्नाटक के साथ ही आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के कलाकारों द्वारा बनाई गई गुड़ियों का प्रदर्शन किया गया है। इन कलाकारों ने प्रत्येक गुड़िया को खास रंग-रूप दिया है।

साभार : दक्षिण भारत राष्ट्रमत

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

हाथियों के बिना अधूरा है जगप्रसिद्ध मैसूर दशहरा


प्रसिध्द मैसूर दशहरे का नाम आते ही हाथियों का जिक्र होना स्वाभाविक हो जाता है। दशहरे की जंबो सवारी में इन हाथियों को शामिल किया जाता है। 10 दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में हाथियों को विशेष सम्मान एवं स्थान प्राप्त है। दशहरे के लिए हाथियों का चुनाव कुछ दिनों पहले से प्रारंभ कर दिया जाता है। चुनाव करने से पहले वन अधिकारी इन हाथियों की शारीरिक क्षमता के साथ ही इनकी भावनात्मक, बौध्दिक क्षमता परखते हैं और इनकी शोर करने एवं शोर सहने की क्षमता का आंकलन भी किया जाता है। पशु चिकित्सक तनावपूर्ण स्थितियों में इनके धैर्य का परीक्षण और हौदा रखने की योग्यता का भी आंकलन किया जाता है।

इसके बाद इन्हें विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। प्रशिक्षण के पश्चात् एक विशेष हाथी का चुनाव किया जाता है जो सभी मापदंडों पर खरा उतरे। इस हाथी का नामकरण अंबारी के रूप में होता है। अंबारी वह हाथी है जिस पर लगभग 750 किलो का 'स्वर्ण हौदा' रखा जाता है। इस हाथी को शोभायात्रा में सबसे अलग दिखने के लिए विशेष तरह से सजाया जाता है। आप को जानकर आश्चर्य होगा कि पिछले कई वर्षों से एक ही हाथी को 'अंबारी' हाथी होने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, जो अब बूढ़ा हो गया है। इतिहासकारों के अनुसार इन हाथियों के चुनाव में मैसूर के राजा काफी उत्साहित रहते थे। वर्ष 1925 में राजा ने हाथियों का चुनाव करने के लिए अपने विशेष व्यक्ति को 400 रुपए के खर्च पर असम और बर्मा के क्षेत्रों की ओर रवाना किया गया था। यह व्यक्ति वहां महीनों रहने के पश्चात् कुछ हाथियों का चुनाव करके मैसूर लेकर आता था। एक बार राजा कृष्णराजा वाडेयार ने लकड़ी के एक व्यापारी से 10 हाथियों को केवल 30 हजार रुपए में खरीदने से मना कर दिया था क्योंकि उनमें से एक भी हाथी 'अंबारी हाथी' बनने की क्षमता नहीं रखते थे। फिर उन्होंने बर्मा के जंगलों में अपने एक आदमी को हाथियों के शिकार के लिए भेजाजहां से वह व्यक्ति हाथियों की तस्वीर खींचकर राजा को भेजता था। तस्वीर देखकर राजा तय करते थे कि उस हाथी को लाना है कि नहीं। इन सभी घटनाओं से 'अंबारी' हाथी की अहमियत का पता चलता है।

हाथियों की बढ़ती उम्र अब समस्या बनती जा रही है। जंबो सवारी के कई हाथी उम्र दराज हो गए हैं और उनकी जगह नए हाथियों की खोज जारी है। 'स्वर्ण हौदा' लेकर चलने वाले हाथी बलराम की उम्र 50 वर्ष हो चुकी है और उसके साथी श्रीराम 51, मैरीपर कांति 68, रेवती 54 और सरला 64 वर्ष के हैं। उनके स्थान पर नए हाथियों की खोज काफी मुश्किल हो रही है क्योंकि जंगल की आबोहवा से परिचित हाथियों को 'शहरी जंगल' के वातावरण से परिचित करना मुश्किल काम है।

साभार : दक्षिण भारत राष्ट्रमत

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

नवरात्रि : स्रोत की ओर एक यात्रा

नवरात्रि का त्योहार अश्विन (शरद) या चैत्र (वसंत) की शुरुआत में प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह काल आत्म निरीक्षण और अपने स्रोत की ओर वापस जाने का समय है। परिवर्तन के इस काल के दौरान, प्रकृति भी पुराने को झड़ कर नवीन हो जाती है; जानवर सीतनिद्रा में चले जाते हैं और बसंत के मौसम में जीवन वापस नए सिरे से खिल उठता है।

विज्ञान के अनुसार, पदार्थ अपने मूल रूप में वापस आकर फिर से बार बार अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी रेखा में नहीं चल रही है बल्कि वह चक्रीय है, प्रकृति के द्वारा सभी कुछ का पुनर्नवीनीकरण हो रहा है- कायाकल्प की यह एक सतत प्रक्रिया है। तथापि सृष्टि के इस नियमित चक्र से मनुष्य का मन पीछे छूटा हुआ है। नवरात्रि का त्योहार अपने मन को वापस अपने स्रोत की ओर ले जाने के लिए है।

उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के माध्यम से जिज्ञासु अपने सच्चे स्रोत की ओर यात्रा करता है। रात को भी रात्रि कहते हैं क्योंकि वह भी नवीनता और ताजगी लाती है। वह हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर राहत देती है- स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर को, और कारण शरीर को। उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थ से मुक्त हो जाता है, मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है, और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर हमें आत्मसाक्षात्कार मिलता है।

यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है। नवरात्रि आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है। जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता), शुम्भ-निशुम्भ (गर्व और शर्म) और मधु-कैटभ (अत्यधिक राग-द्वेष) को नष्ट किया जा सकता है। वे एक-दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं, फिर भी एक-दूसरे के पूरक हैं। जड़ता, गहरी नकारात्मकता और मनोग्रस्तियाँ (रक्तबीजासुर), बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुँधली दृष्टि (धूम्रलोचन्) को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है।

नवरात्रि के नौ दिन तीन मौलिक गुणों से बने इस ब्रह्मांड में आनन्दित रहने का भी एक अवसर है। यद्यपि हमारा जीवन इन तीन गुणों के द्वारा ही संचालित है, हम उन्हें कम ही पहचान पाते हैं या उनके बारे में विचार करते हैं। नवरात्रि के पहले तीन दिन तमोगुण के हैं, दूसरे तीन दिन रजोगुण के और आखिरी तीन दिन सत्त्व के लिए हैं। हमारी चेतना इन तमोगुण और रजोगुण के बीच बहती हुई सतोगुण के आखिरी तीन दिनों में खिल उठती है। जब भी जीवन में सत्व बढ़ता है, तब हमें विजय मिलती है। इस ज्ञान का सारतत्व जश्न के रूप में दसवें दिन विजयादशमी द्वारा मनाया जाता है।

यह तीन मौलिक गुण हमारे भव्य ब्रह्मांड की स्त्री शक्ति माने गए हैं। नवरात्रि के दौरान देवी माँ की पूजा करके, हम त्रिगुणों में सामंजस्य लाते हैं और वातावरण में सत्व के स्तर को बढ़ाते हैं। हालाँकि नवरात्रि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाई जाती है, परंतु वास्तविकता में यह लड़ाई अच्छे और बुरे के बीच में नहीं है। वेदांत की दृष्टि से यह द्वैत पर अद्वैत की जीत है। जैसा अष्टावक्र ने कहा था, बेचारी लहर अपनी पहचान को समुद्र से अलग रखने की लाख कोशिश करती है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता।

हालाँकि इस स्थूल संसार के भीतर ही सूक्ष्म संसार समाया हुआ है, लेकिन उनके बीच भासता अलगाव की भावना ही द्वंद का कारण है। एक ज्ञानी के लिए पूरी सृष्टि जीवंत है जैसे बच्चों को सबमें जीवन भासता है ठीक उसी प्रकार उसे भी सब में जीवन दिखता है। देवी माँ या शुद्ध चेतना ही सब नाम और रूप में व्याप्त हैं। हर नाम और हर रूप में एक ही देवत्व को जानना ही नवरात्रि का उत्सव है। अतः आखिर के तीन दिनों के दौरान विशेष पूजाओं के द्वारा जीवन और प्रकृति के सभी पहलुओं का सम्मान किया जाता है।

काली माँ प्रकृति की सबसे भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, फिर भी उसका एक भयानक रूप भी है। इस द्वैत यथार्थ को मानकर मन में एक स्वीकृति आ जाती है और मन को आराम मिलता है।

देवी माँ को सिर्फ बुद्धि के रूप में ही नहीं जाना जाता, बल्कि भ्राँति के रूप में भी; वह न सिर्फ लक्ष्मी (समृद्धि) हैं, वह भूख (क्षुधा) भी हैं और प्यास (तृष्णा) भी हैं। सम्पूर्ण सृष्टि में देवी माँ के इस दोहरे पहलू को पहचान कर एक गहरी समाधि लग जाती है। यह पच्छम की सदियों पुरानी चली आ रही धार्मिक संघर्ष का भी एक उत्तर है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा अद्वैत सिद्धि प्राप्त की जा सकती है अथवा इस अद्वैत चेतना में पूर्णता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।

(साभार: श्रीश्री रविशंकर जी)

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

विश्व वृद्ध दिवस : श्रद्धा के पात्र हैं, उन्हें पलकों में जगह दें

बढ़ती जनसंख्या के प्रति विश्वव्यापी चिंता के कारण इस समय विश्व भर में शिशु-जन्मदर में कुछ कमी हो रही है, लेकिन दूसरी ओर स्वास्थ्य और चिकित्सा संबंधी बढ़ती सुविधाओं के कारण औसत आयु में निरन्तर वृद्धि हो रही है। यह औसत आयु अलग-अलग देशों में अलग-अलग है। भारत में सन 1947 में यह औसत आयु केवल 27 वर्ष थी, जो 1961 में 42 वर्ष, 1981 में 54 वर्ष और अब लगभग पैंसठ वर्ष तक पहुंच गयी है। साठ से अधिक आयु के लोगों की संख्या में वृद्धि हमारे यहां विशेष रूप में 1961 से प्रारम्भ हुई, जो चिकित्सा सुविधाओं के प्रसार के साथ-साथ निरन्तर बढ़ती चली गयी। हमारे यहां 1991 में 60 वर्ष से अधिक आयु के 5 करोड़ 60 लाख व्यक्ति थे। जो 2007 में बढ़कर 8 करोड़ 40 लाख हो गये। देश में सबसे अधिक बुजुर्ग केरल में हैं। वहां कुल जनसंख्या में 11 प्रतिशत बुजुर्ग हैं, जबकि सम्पूर्ण देश में यह औसत लगभग 8प्रतिशत है।

वृद्धजन सम्पूर्ण समाज के लिए अतीत के प्रतीक, अनुभवों के भंडार तथा सभी की श्रद्धा के पात्र हैं। समाज में यदि उपयुक्त सम्मान मिले और उनके अनुभवों का लाभ उठाया जाए तो वे हमारी प्रगति में विशेष भागीदारी भी कर सकते हैं। इसलिए बुजुर्गों की बढ़ती संख्या हमारे लिए चिंतनीय नहीं है। चिंता केवल इस बात की होनी चाहिए कि वे स्वस्थ, सुखी और सदैव सक्रिय रहें।

वृद्धों की समस्या पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में सर्वप्रथम अर्जेंटीना ने विश्व का ध्यान आकर्षित किया था। तब से लेकर अब तक वृद्धों के संबंध में अनेक गोष्ठियां और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं। वर्ष 1999 को अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग-वर्ष के रूप में भी मनाया गया। इससे पूर्व 1982 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘वृद्धावस्था को सुखी बनाइए’ जैसा नारा दिया और ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का अभियान प्रारम्भ किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रथम अक्तूबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध-दिवस’ के रूप में घोषित किया हुआ है और इस रूप में विश्वभर में इसका आयोजन भी किया जाता है। इन सब बातों से वृद्ध व्यक्तियों के प्रति लोगों में सम्मान और संवेदना के भाव जागे और उनके स्वास्थ्य तथा आर्थिक समस्याओं के समाधान पर विशेष ध्यान दिया गया। वृद्धावस्था की बीमारियों के लिए अनेक औषधियों का आविष्कार किया गया और अनेक स्थानों पर अस्पतालों में उनके लिए विशेष व्यवस्था की गयी। लगभग सभी पश्चिमी देशों में आर्थिक समस्या से जूझते वृद्धों के लिए पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था की गयी है, जिससे उनका खर्च आराम से चल जाता है। वहां के बुजुर्गों के सामने अब सामान्यत: आर्थिक संकट नहीं है। उनके सामने स्वास्थ्य के अतिरिक्त मुख्य समस्या अकेलेपन की है। वयस्क होने पर बच्चे अलग रहने लगते हैं और केवल सप्ताहान्त या अन्य विशेष अवसरों पर ही वे उनसे मिलने आते हैं। कभी-कभी उनसे मिले महीने या वर्ष भी गुजर जाते हैं। बीमारी के समय उन्हें सान्त्वना देेने वाला सामान्यत: उनका कोई भी अपना उनके पास नहीं होता।

हमारे यहां प्राचीन भारत में बुजुर्गों के प्रति विशेष सम्मान और आदर की भावना थी। वे सदैव परिवार के मुखिया रहते और उन्हीं के मार्ग-निर्देशन में परिवार की गतिविधियां आगे बढ़तीं। छोटों के द्वारा बड़ों के चरणस्पर्श और बड़ों के द्वारा छोटों को आशीर्वाद की पंरपरा ने अपनत्व की इस भावना को सदैव मजबूत बनाये रखा। संयुक्त परिवार की प्रथा ने आबाल वृद्ध नर-नारी सभी को आपसी प्रेम की माला में पिरोये रखा। किन्तु कालान्तर में संयुक्त परिवार की प्रथा चरमराने लगी और धीरे-धीरे वह समाप्तप्राय हो गयी। चरण छूने और आशीर्वाद की परंपरा भी अब औपचारिकता बनकर रह गयी हैं। पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हमारे नवयुवक भी विवाह के उपरान्त अपना-अलग घर बसाने लगे हैं। इससे समाज में वृद्धों की स्थिति दयनीय होती चली गयी। अनेक राज्य सरकारों ने अपने यहां बेसहारा वृद्धों के लिए पेंशन की व्यवस्था की हुई है, मगर वह इतनी कम है कि उससे दो वक्त का भोजन जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। फिर व्यवस्था की उलझनों के कारण उस पेंशन को प्राप्त करना भी टेढ़ी खीर है। राज्यसेवा में रहे व्यक्तियों को अवश्य ही अपनी पेंशन के कारण आर्थिक संकट की आशंका नहीं रहती, मगर बीमारी के समय उनके लिए भी किसी अपने के अभाव में भयानक परेशानी हो जाती है। अवश्य ही, जिन परिवारों में थोड़े बहुत पुराने संस्कार शेष हैं, वहां के बुजुर्ग अपने इस अकेलेपन की पीड़ा से एक सीमा तक मुक्त रह पाते हैं।
वृद्धावस्था के अभिशाप के दो पहलू हैं। एक सामाजिक और दूसरा व्यक्तिगत। सामाजिक पहलू यह है कि समाज में उन्हें यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं होता। उन्हें अनुपयोगी और निरर्थक माना जाता है। उनके पास समय बिताने का या मनोरंजन का कोई साधन नहीं है। नवयुवक उन्हें अपनी प्रगति के मार्ग में बाधा मानते हैं और उनके साथ किसी प्रकार का वैचारिक सामंजस्य नहीं रख पाते।

समस्या का व्यक्तिगत पहलू और भी अधिक दुरूह है। समाज की उपेक्षा से वे अपने को कुंठित और निराश महसूस करते हैं। मौत अवश्यम्भावी है, यह वे भी जानते हैं। मगर वह मौत कब, कैसे और किन तकलीफों के साथ होगी, इस बारे में तरह-तरह की आशंकाएं उन्हें सदैव घेरे रहती हैं। उनकी शारीरिक और मानसिक शक्ति का निरंतर क्षय होता जाता है, जिससे वे स्वयं अपने शरीर का काम भी भली प्रकार नहीं कर पाते। दूसरों पर निर्भरता काफी अधिक बढ़ जाती है। आमदनी का कोई साधन न होने पर आर्थिक संकट उन्हें सबसे अधिक तंग करता है।

वृद्ध महिलाओं के लिए कुछ विशेष समस्याएं भी हैं। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण हमारे यहां सामान्यत: वृद्ध पुरुष को ही परिवार का मुखिया माना जाता है और इसी रूप में परिवार से बाहर वालों के सामने उसे प्रस्तुत किया जाता है। इसलिए कम से कम दिखावे के लिए वृद्ध पुरुषों के प्रति सम्मान की औपचारिक प्रथा कमोबेश रूप में बनी रहती है। यदि वह वृद्ध पुरुष पेंशन या अन्य किसी साधन से कुछ कमाता है, तब उसका सम्मान भी बढ़ जाता है। पेंशन प्राप्त करने वाली या अन्य किसी उत्पादक कार्य अथवा गृहकार्य में योगदान करने वाली महिला के साथ भी सम्मान की यह भावना कमोबेश रूप में जुड़ी रहती है। लेकिन अन्य महिलाओं की स्थिति बेहद खराब होती है। बहू-बेटे का व्यवहार अधिकांशत: उसके प्रति अभद्र और आपत्तिजनक होता है। हमारे यहां विधवाओं की स्थिति तो बेहद दयनीय है। किसी भी शुभ कार्य में उन्हें अपशकुन माना जाता है और उन्हें ऐसे कार्यों से दूर रखकर उन्हें मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जाता है।

प्रश्न उठता है वृद्ध व्यक्तियों के सम्मुख उपस्थित समस्याओं का समाधान क्या हो? हमें सर्वप्रथम तो उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाने पर ध्यान देना होगा। इस संदर्भ में मुख्य समस्या उन लोगों की हैं, जो न तो किसी उत्पादक कार्य में लगे हैं और न उन्हें कोई पेंशन मिलती है। इनमें कुछ लोग इतने शक्तिहीन और निर्बल हो चुके हैं कि वे कोई काम कर ही नहीं सकते। ऐसे बेसहारा वृद्ध व्यक्तियों के लिए सरकार की ओर से आवश्यक रूप से और सहज रूप मे मिल सकने वाली पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसे वृद्ध व्यक्ति जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हैं, उनके लिए समाज को कम परिश्रम वाले हल्के-फुल्के रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए।

वृद्धों के कल्याण के लिए इस प्रकार के कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए, जो उनमें जीवन के प्रति उत्साह उत्पन्न करे। इसके लिए उनकी रुचि के अनुसार विशेष प्रकार की योजनाएं भी लागू की जा सकती हैं। स्वयं वृद्धजन को भी अपने तथा परिवार और समाज के हित के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ युवा परिजनों के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें और उन्हें अपने ढंग से जीवन जीने दें। उन्हें अपने खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। सदैव हल्का, सादा और स्वास्थ्यवद्र्धक भोजन लेना चाहिए। अपने को सदैव तनाव से दूर रखें और यथासंभव नित्यप्रति हल्का और नियमित व्यायाम करें। प्रात: और संध्या को नित्य घूमना उनके लिए विशेष उपयोगी है। अपने को यथासंभव व्यस्त रखें और निराशा को कभी भी अपने पास न फटकने दें। सदैव शांत, संतुष्ट और संयमित जीवन बितायें। समाज के लिए कुछ उपयोगी कार्य करने का सदैव प्रयत्न करें।

प्रो. योगेश चन्द्र शर्मा
साभार : दैनिक ट्रिब्यून