उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

सावन आया झूम के...

सावन मास आज 27 जुलाई से आरंभ हो गया और 24 अगस्त तक रहेगा। सावन मास को श्रावण भी कहा जाता है। यह महीना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दौरान भक्ति, आराधना तथा प्रकृति के कई रंग देखने को मिलते हैं। यह महीना भगवान शिव की भक्ति के लिए विशेष माना जाता है। ऐसा मन जाता है कि इस मास में विधिपूर्वक शिव उपासना करने से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है। सावन मास कि अपनी महत्ता है. इसी सावन मास के दौरान ही कई प्रमुख त्योहार जैसे- हरियाली अमावस्या, नागपंचमी तथा रक्षा बंधन आदि भी आते हैं। सावन में प्रकृति अपने पूरे शबाब पर होती है इसलिए यह भी कहा जाता कि यह महीना प्रकृति को समझने व उसके निकट जाने का है। सावन की रिमझिम बारिश और प्राकृतिक वातावरण बरबस में मन में उल्लास व उमंग भर देती है। सावन में ही महिलाएं कजरी-गायन कर खूब रंग बिखेरती हैं। सावन का महीना पूरी तरह से शिव तथा प्रकृति को समर्पित है.


वन्दे देव उमा पतिम् सुरगुरुम् ।
वन्दे जगत कारणम् ।
वन्दे पन्नग भूषणम्मृगधरम् ।
वन्दे पशुनाम पतिम ।
वन्दे सूर्य शशांक वन्हिनयनम् ।
वन्दे मुकन्द प्रियम् ।
वन्दे भक्तजनाश्रयन्चवर्धम् ।
वन्दे शिवम् शंकरम् ।। ।। जय शंकर ।।।।
जय भोले नाथ ।।
भगवान शिव का नमन करते हुए आपको श्रावण मास के इस पावन पर्व पर हार्दिक बधाई।

रविवार, 25 जुलाई 2010

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े (गुरु पूर्णिमा पर विशेष)

"गुरुतर महत्ता का प्रतीयमान 'गुरु' शब्द स्वयं में ही अलौकिक श्रद्धा का प्रतीक है । विश्वगुरु भारत की समृद्ध गुरु-शिष्य परम्परा पर समय समय पर अपसंस्कृति की धूल जमने का प्रयास करती रही है किंतु इसकी शाश्वत उज्ज्वलता आज भी विद्यमान है। अब तो गुरु-वंदना में अखिल विश्व भारत का अनुसरण कर रहा है। जो अखंड ब्रह्माण्ड रूप में चर और अचर सब में व्याप्त है, जो ब्रह्मा, विष्णु और देवाधि देव महेश हैं, उन्हें हमरा सत सत नमन ! "

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारीगुरु आपकी गोविन्द दियो मिलाय।।


संत कबीर दास की ये पंक्तियां हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति में गुरु के महत्व को अभिव्यक्त करती हैं।

अपनी बात मैं उपनिशद की एक कहानी से शुरु करता हूं। एक राजा का बेटा रास्ता भूल-भटक कर एक जंगल में पहुंच गया। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। जंगली पशुओं के बीच रह कर वह दीन-हीन जीवन बिता रहा था।

संयोग से उधर रहते एक साधु की नज़र उस पर पड़ी। उस साधु ने उसे राजा का बेटा होने की बात याद दिलाई। और उसे उसके पिता के राज्य तक लौटने का रास्ता बता दिया। बस क्या था! वह पूछते-पाछते अपने पिता के राज्य में पहुंच गया और पिता का उत्तराधिकार राज्य के रूप में पाकर सुखी जीवन बिताने लगा।

इस कहानी से यह स्पष्ट है कि भूला-भटका भी यदि समुचित मार्ग-दर्शन पा ले तो सही गंतव्य तक पहुंच सकता है। आज का मानव दुखी-दीन बना हुआ है। उसे अपने स्थान तक पहुँचाने वाला कोई मर्गदर्शक नहीं मिला है, अगर मिला है तो उस गुरु की वाणी पर सत्यनिष्ठा का अभाव है।

सन्त कबीरदास ने गुरु को कुम्हार और शिष्य को घड़ा का प्रतिरूप बताते हुए कहा है –

गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि- गढ़ि काढय खोट।
अन्तर हाथ-सहार दय, बाहर- बाहर चोट॥

अर्थात सद्गुरु अपनी कृपा से सर्वथा तुच्छ और तिरस्कारपात्र व्यक्ति को भी आदर का पात्र बना देते हैं, जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाते समय बांया हाथ घड़े के पेट में लगाए रहता है और दाएं हाथ से थापी पीट-पीट कर उसे सुडौल-सुघड़ गढ डालता है, ठीक उसी प्रकार गुरु करता है।

ऐसे गुरु को यदि सामान्य जन न समझे तो कबीर उसे अंधा मानते हैं।

कबिरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर॥


गुरु की प्राप्ति सबसे बड़ी उपलब्धि है और गुरु के लिए कुछ भी अदेय नहीं है।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥

इस संसार के विष से भरे जीवन को अपनी सिद्धि और करुणा के सहारे गुरु अमृतमय बनाकर हमें हमारे लक्ष्य तक पहुंचा देता है। इसीलिए हर साधक गुरु को ब्रह्मा, गुरु को ही विष्णु और गुरु को ही सदा शिव, बल्कि यहां तक कि गुरु को ही परब्रह्म के रूप में नमन करता है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्‍वरः।
गुरुः साक्षातपरंब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

गुरु की महिमा अपरंपार है। उसे मैं तुच्छ क्या समेट सकता हूं इस आलेख के द्वारा।

सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बन राय।
सात समुद की मसि करूं गुरु गुन लिखा न जाए॥

गुरु के अलावा साधक का पथ-प्रदर्शक कोई नहीं होता। सिद्धि दिलाना तो गुरु के हाथों में होता है। गुरु वही है जो शिष्यों को समझाने में दक्ष है। “गु” शब्द का अर्थ है, “अज्ञान” और “गुफा” और “रु” शब्द का अर्थ है “प्रकाश”। गुरु शिष्य के हृदय के अज्ञान के अंधकार को ज्ञान-रूपी प्रकाश से उज्ज्वल बनता है।

जो दिव्यात्मा हमें मनुष्यत्व से देवत्व में परिवर्तित कराने में सामर्थ्यवान होता है वही गुरु है। यदि शिष्य गुरु की आवश्यकता को सही प्रकार से समझता है और उसकी पूर्ति के लिए प्राणपण से संलग्न रहता है तो उसकी कोई विशेष अनुष्ठान व साधना की आवश्यकता नहीं पड़ती

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्त्ति पूजामूलं गुरोःपदम।
मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥
हे गुरु आपको बार-बार नमस्कार है।
अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम।
तत्पददर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

(साभार : मनोज )