अखंड सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियाँ हरतालिका तीज का विशिष्ट व्रत रखती हैं। यह व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को किया जाता है। 'हर' शिव का ही एक नाम है और चूँकि शिव आराधना इस व्रत का मूलाधार है, इसलिए इसका नाम हरतालिका व्रत रखा गया। जहाँ तक 'हरि' का सवाल है, यह भगवान विष्णु का एक नाम है।
हरितालिका को लेकर भी पौराणिक कथाएँ उपलब्ध हैं, जिनके अनुसार पार्वतीजी ने एक बार सखियों द्वारा 'हरित' यानी अपहृत होकर एक कन्दरा में इस व्रत का पालन किया था, इसलिए कालांतर में इसका नाम हरितालिका प्रसिद्ध हुआ। इस व्रत के लिए हरतालिका या हरितालिका दोनों ही शब्दों का उपयोग किया जाता है। ग्रंथों में भी दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है।
हरतालिका व्रत सभी पापों एवं सांसारिक तापों का हरण करने वाला माना गया है। शास्त्रों में इस व्रत के बारे में कहा गया है कि यह व्रत 'हरित पापान सांसारिकान क्लेशाञ्च', अर्थात यह व्रत संसार के सभी क्लेश, कलह और पापों से मुक्ति दिलाता है। यह शिव-पार्वती की आराधना का सौभाग्य व्रत है, जो केवल महिलाओं के लिए है। निर्जला एकादशी व्रत की तरह हरतालिका तीज का व्रत भी निराहार और निर्जल रहकर किया जाता है। रात्रि में शिव-गौरी पूजन किया जाता है और रात्रि जागरण की भी प्रथा है। दूसरे दिन अन्ना-जल ग्रहण किया जाता है।
ऐसी पौराणिक मान्यता है कि यह व्रत सर्वप्रथम पार्वतीजी ने भगवान शिव से विवाह करने के लिए किया था। यह भी एक सुखद संयोग था कि माँ पार्वती की मनोकामना इसी दिन पूरी हुई थी। तभी से स्त्रियाँ पति में अचल भक्ति हेतु और इसके पूर्व मनोवांच्छित वर की प्राप्ति हेतु यह व्रत करती आई हैं। इस व्रत को कन्याएं भी करती हैं, ताकि वे अपनी इच्छानुसार पति प्राप्त कर सकें।
इस व्रत में आठ प्रहर उपवास करने के बाद भोजन करने का विधान है। इस व्रत का फल 'अवैधव्यकारा स्त्रीणा पुत्र-पौत्र प्रर्वधिनी' बताया गया है। अर्थात संपूर्ण सांसारिक जीवन में कुशल-मंगल हेतु इस व्रत को विधि-विधान से करने का सुझाव दिया गया है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार हरतालिका तीज के दिन ही भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को ही 'हस्तगौरी', 'हरिकाली' और 'कोटेश्वरी' या 'कोटीश्वरी' व्रत भी किया जाता है। या कहें कि हरतालिका व्रत इन नामों से भी विख्यात है, जिसमें आदि शक्ति माँ पार्वती का गौरी के रूप में पूजन होता है।
भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को ही हस्तगौरी व्रत का अनुष्ठान होता है। महाभारत काल में इस व्रत को करने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने राज्य की प्राप्ति के लिए, धन-धान्य के लिए कुंती को यह व्रत करने को कहा था। इसमें तेरह वर्षों तक शिव-पार्वती व श्रीगणेश में ध्यान लगाना पड़ता है और चौदहवें वर्ष में इस व्रत का उद्यापन किया जाता है।
(डॉ. आर.सी.ओझा)
उत्सव के रंग...
भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)
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2 टिप्पणियां:
हरितालिका तीज की प्रासंगिकता को उकेरता बेहतरीन लेख...बधाई.
bada kathin hai ye vrat.
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