उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

विश्व नृत्य दिवस

आज विश्व नृत्य दिवस है. गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस की शुरुआत 29 अप्रैल 1982 से हुई। यूनेस्को के अंतरराष्ट्रीय थिएटर इंस्टिट्यूट की अंतरराष्ट्रीय डांस कमेटी ने 29 अप्रैल को नृत्य दिवस के रूप में स्थापित किया। एक महान रिफॉर्मर जीन जार्ज नावेरे के जन्म की स्मृति में यह दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को पूरे विश्व में मनाने का उद्देश्य जनसाधारण के बीच नृत्य की महत्ता का अलख जगाना है.आज इस विशिष्ट दिवस पर चर्चा करते हैं कि कैसे शास्त्रीय नृत्य से रोग भी भाग जाते हैं.

शास्त्रीय नृत्य से आप सभी वाकिफ होंगे। इसके बारे में सुनते ही जेहन में कत्थक करती किसी नृत्यांगना की तस्वीर उभर आती है। लेकिन क्या आपको इस बात का इल्म है कि यह शास्त्रीय नृत्य मात्र एक कला नहीं बल्कि दवा भी है। इस बात पर अपनी सहमति की मोहर लगाती हैं राष्ट्रीय स्तर की शास्त्रीय नृत्यांगना मनीषा महेश यादव। मुम्बई विश्वविद्यालय से नृत्य में विशारद की डिग्री हासिल कर मनीषा ने कई मंचों पर शास्त्रीय नृत्य का प्रदर्शन किया। अपनी काबिलियत के चलते उन्हें फिल्म ’दिल क्या करे’ में कोरियोग्राफी करने का भी मौका मिला। मुम्बई में मनीषा हर प्रकार के लोक और शास्त्रीय नृत्य की शिक्षा भी देती हैं। मनीषा यादव की मानें तो म्यूजिक थेरेपी जहाँ मानसिक समस्याओं को दूर करने में सक्षम है वहीं शास्त्रीय नृत्य शारीरिक समस्याओं को।

राष्ट्रीय स्तर के श्रंृगारमणि पुरस्कार से नवाजी जा चुकी मनीषा की यह बात उन्हीं के एक किस्से से साबित हो जाती है। वह बताती हैं कि-'मेरी एक छात्रा को दमा की शिकायत थी। सभी डाॅक्टरों ने उसे ज्यादा थकावट लाने वाले काम करने से मना कर दिया था। लेकिन वह फिर भी मुझसे कत्थक सीखने आती थी। और यह सीखते-सीखते उसे इस समस्या से निजात मिल गई।’ दरअसल बात यह है कि दमा के मरीजों को लम्बी साँस लेने में परेशानी होती है। लेकिन कत्थक के हर स्टेप को लम्बी साँस लेकर ही पूरा किया जा सकता है। कत्थक सीखते समय दमा के मरीजों को शुरूआत में तो कुछ दिक्कतें आती हैं लेकिन जब उन्हें लम्बी साँस खींचने का अभ्यास हो जाता है तो उनकी साँस फूलने की शिकायत भी दूर हो जाती है।

दमा ही नहीं कत्थक से तीव्र स्मरण शक्ति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। बकौल मनीषा ’कत्थक की कुछ खास गिनतियाँ होती हैं जिन्हें याद रखना बेहद कठिन होता है। इसके लिए हम अपने छात्रों को कुछ विशेष तकनीकों से गिनतियाँ याद करवाते हैं।’ बस यही वे तकनीकें हैं जो कत्थक के स्टेप सीखने के साथ ही बच्चों को उनके किताबी पाठ याद करने में भी मददगार बन जाती हैं। वैसे अगर आपकी हड्डियाँ कमजोर हैं और इस वजह से आप कत्थक सीखने से हिचक रही हैं तो इस भ्रम को अपने मन से निकाल दीजिए। बकौल मनीषा कत्थक में वोंर्म-अप व्यायाम भी करवाए जाते हैं। जिससे हाथ-पाँव में लचीलापन आ जाता है। इन व्यायामों से हड्डियाँ भी मजबूत होती हैं।’

इन सबके अलावा कत्थक दिल के मरीजों के लिए भी एक सटीक दवा है। एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए मनीषा इस बात का पक्ष लेती हैं, ’मेरी डांस क्लास में एक 50 वर्ष की वृद्ध महिला कत्थक सीखने आती थीं। वह दिल की मरीज थीं। डाॅक्टरों के मुताबिक उनके शरीर में रक्त सही गति से नहीं दौड़ता था।’ लेकिन कत्थक सीखने के उनके शौक ने उनकी इस समस्या को जड़ से मिटा दिया। आज वह स्वस्थ जीवन बिता रही हैं।

तो वाकई आज की व्यस्त जिंदगी में यदि शास्त्रीय नृत्य कत्थक में स्वस्थ रहने का राज छुपा है, तो भारतीय नृत्य की इस अद्भुत धरोहर से नई पीढ़ी को परिचित कराने की जरुरत है जो पाश्चात्य संस्कृति में ही अपना भविष्य खोज रही है.

विश्व नृत्य दिवस की शुभकामनायें.....!!

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

पुस्तकों के प्रति आकर्षण जरुरी (विश्व पुस्तक दिवस पर)

पढना किसे अच्छा नहीं लगता। बचपन में स्कूल से आरंभ हुई पढाई जीवन के अंत तक चलती है. पर दुर्भाग्यवश आजकल पढ़ने की प्रवृत्ति लोगों में कम होती जा रही है. पुस्तकों से लोग दूर भाग रहे हैं. हर कुछ नेट पर ही खंगालना चाहते हैं. शोध बताते हैं कि इसके चलते लोगों की जिज्ञासु प्रवृत्ति और याद करने की क्षमता भी ख़त्म होती जा रही है. बच्चों के लिए तो यह विशेष समस्या है. पुस्तकें बच्चों में अध्ययन की प्रवृत्ति, जिज्ञासु प्रवृत्ति, सहेजकर रखने की प्रवृत्ति और संस्कार रोपित करती हैं. पुस्तकें न सिर्फ ज्ञान देती हैं, बल्कि कला-संस्कृति, लोकजीवन, सभ्यता के बारे में भी बताती हैं. नेट पर लगातार बैठने से लोगों की आँखों और मस्तिष्क पर भी बुरा असर पड़ रहा है. ऐसे में पुस्तकों के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा करना जरुरी हो गया है. इसके अलावा तमाम बच्चे गरीबी के चलते भी पुस्तकें नहीं पढ़ पाते, इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है. 'सभी के लिए शिक्षा कानून' को इसी दिशा में देखा जा रहा है।

आज 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस है। यूनेसको ने 1995 में इस दिन को मनाने का निर्णय लिया, कालांतर में यह हर देश में व्यापक होता गया. लोगों में पुस्तक प्रेम को जागृत करने के लिए मनाये जाने वाले इस दिवस पर जहाँ स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई की आदत डालने के लिए सस्ते दामों पर पुस्तकें बाँटने जैसे अभियान चलाये जा रहे हैं, वहीँ स्कूलों या फिर सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शनियां लगाकर पुस्तक पढ़ने के प्रति लोगों को जागरूक किया जा रहा है. स्कूली बच्चों के अलावा उन लोगों को भी पढ़ाई के लिए जागरूक किया जाना जरुरी है जो किसी कारणवश अपनी पढ़ाई छोड़ चुके हैं। बच्चों के लिए विभिन्न जानकारियों व मनोरंजन से भरपूर पुस्तकों की प्रदर्शनी जैसे अभियान से उनमें पढ़ाई की संस्कृति विकसित की जा सकती है. पुस्तकालय इस सम्बन्ध में अहम् भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते उनका रख-रखाव सही ढंग से हो और स्तरीय पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं वहाँ उपलब्ध कराई जाएँ। वाकई आज पुस्तकों के प्रति ख़त्म हो रहे आकर्षण के प्रति गंभीर होकर सोचने और इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की जरुरत है. विश्व पुस्तक दिवस पर अपना एक बाल-गीत भी प्रस्तुत कर रहा हूँ-
प्यारी पुस्तक, न्यारी पुस्तक
ज्ञानदायिनी प्यारी पुस्तक
कला-संस्कृति, लोकजीवन की
कहती है कहानी पुस्तक।
अच्छी-अच्छी बात बताती
संस्कारों का पाठ पढ़ाती
मान और सम्मान बड़ों का
सुन्दर सीख सिखाती पुस्तक।
सीधी-सच्ची राह दिखाती
ज्ञान पथ पर है ले जाती
कर्म और कर्तव्य हमारे
सदगुण हमें सिखाती पुस्तक।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

विश्व पृथ्वी दिवस : प्रलय का इंतजार

आज की यह पोस्ट माँ पर, पर वो माँ जो हर किसी की है। जो सभी को बहुत कुछ देती है, पर कभी कुछ माँगती नहीं। पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उसका ही शोषण करने लगते हैं। जी हाँ, यह हमारी धरती माँ है। हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर धरती माँ की नहीं. यदि धरती ही ना रहे तो क्या होगा... कुछ नहीं। ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद हम नित उसी धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. हम जिसकी छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. सौभाग्य से आज विश्व पृथ्वी दिवस है. लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पृथ्वी दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने परिवेश को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.

आज आफिस के लिए निकला तो बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा आपको पता है आज विश्व पृथ्वी दिवस है। आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें पेड़-पौधों की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए। पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है। पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे.

अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं. आखिर हम बच्चों में धरती और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से धरा का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-माँ-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरिना चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ..क्या ये प्रलय नहीं है. गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा धरती माँ कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा !!

विश्व पृथ्वी दिवस : आज धरती माँ की सोचें

आज 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस है. वैसे आजकल हर दिन का फैशन है, पर पृथ्वी दिवस की महत्ता इसलिए बढ़ जाती है कि यह पृथ्वी और पर्यावरण के बारे में लोगों को जागरूक करता है. यदि पृथ्वी ही नहीं रहेगी तो फिर जीवन का अस्तित्व ही नहीं रहेगा. हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सुरक्षा को ललकार किया गया कोई भी कार्य समूची मानवता को खतरे में डाल सकता है. सर्वप्रथम पृथ्वी दिवस का विचार अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में पर्यावरण शिक्षा के अभियान रूप में की गयी, पर धीरे-धीरे यह पूरे विश्व में प्रचारित हो गया. आज हम अपने आसपास प्रकृति को न सिर्फ नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि भावी पीढ़ियों से प्रकृति को दूर भी कर रहे हैं. ऐसे परिवेश में कल वास्तविक पार्क की बजाय हमें ई-पार्क देखने को मिले, तो कोई बड़ी बात नहीं.

शनिवार, 20 मार्च 2010

अब गौरैया दिवस भी

गौरैया भला किसे नहीं भाती. कहते हैं कि लोग जहाँ भी घर बनाते हैं देर सबेर गौरैया के जोड़े वहाँ रहने पहुँच ही जाते हैं। पर यही गौरैया अब खतरे में है. पिछले कई सालों से इसके विलुप्त होने की बात कही जा रही है. कंक्रीटों के शहर में गौरैया कहाँ घर बनाये, उस पर से मोबाइल टावरों से निकले वाली तंरगों को भी गौरैयों के लिए हानिकारक माना जा रहा है। हम जिस मोबाइल पर गौरैया की चूं-चूं कलर ट्यून के रूप में सेट करते हैं, उसी मोबाइल की तंरगें इसकी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ता है. यही नहीं आज की पीढ़ी भी गौरैया को नेट पर ही खंगाल रही है. उसके पास गौरैयाके पीछे दौड़ने के लिए समय भी नहीं है, फिर गौरैया कहाँ जाये..किससे अपना दुखड़ा रोये..यदि इसे आज नहीं सोचा गया तो कल गौरैया वाकई सिर्फ गीतों-किताबों और इन्टरनेट पर ही मिलेगी. इसी चिंता के मद्देनजर इस वर्ष से दुनिया भर में प्रति वर्ष 20 मार्च को ''विश्व गौरैया दिवस'' मनाने का निर्णय लिया गया है. देर से ही सही पर इस ओर कुछ ठोस कदम उठाने की जरुरत है, तभी यह दिवस सार्थक हो सकेगा. इस अवसर पर अपने पतिदेव कृष्ण कुमार यादव जी की एक कविता उनके ब्लॉग शब्द सृजन की ओर से साभार-

चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।

वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे।

बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।

बच्चे प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।

आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी?

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नव संवत्सर से जुडी हैं कई महत्वपूर्ण घटनाएँ

भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत में नव वर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है। असम में नववर्ष बीहू के रुप में मनाया जाता है, केरल में पूरम विशु के रुप में, तमिलनाडु में पुत्थंाडु के रुप में, आन्ध्र प्रदेश में उगादी के रुप में, महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा के रुप में तो बांग्ला नववर्ष का शुभारंभ वैशाख की प्रथम तिथि से होता है।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ लगभग सभी जगह नववर्ष मार्च या अप्रैल माह अर्थात चैत्र या बैसाख के महीनों में मनाये जाते हैं। पंजाब में नव वर्ष बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगू नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग$आदि का अपभ्रंश) के रूप मंे मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रुप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेण्डर नवरेह 19 मार्च को आरम्भ होता है। महाराष्ट्र में गुडी पड़वा के रुप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुडी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरुविजा नव वर्ष के रुप में मनाया जाता है। मारवाड़ी और गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है, जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है। वस्तुतः भारत वर्ष में वर्षा ऋतु की समाप्ति पर जब मेघमालाओं की विदाई होती है और तालाब व नदियाँ जल से लबालब भर उठते हैं तब ग्रामीणों और किसानों में उम्मीद और उल्लास तरंगित हो उठता है। फिर सारा देश उत्सवों की फुलवारी पर नववर्ष की बाट देखता है। इसके अलावा भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं, इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था।

भारतीय नव वर्ष नव संवत्सर का आरंभ आज हो रहा है. ऐसी मान्यता है कि जगत की सृष्टि की घड़ी (समय) यही है। इस दिन भगवान ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना हुई तथा युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारंभ हुआ।

‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि।
शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति।।‘


अर्थात ब्रह्मा पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के प्रथम दिन, प्रथम सूर्योदय होने पर की। इस तथ्य की पुष्टि सुप्रसिद्ध भास्कराचार्य रचित ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ से भी होती है, जिसके श्लोक में उल्लेख है कि लंका नगर में सूर्योदय के क्षण के साथ ही, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस से मास, वर्ष तथा युग आरंभ हुए। अतः नव वर्ष का प्रारंभ इसी दिन से होता है, और इस समय से ही नए विक्रम संवत्सर का भी आरंभ होता है, जब सूर्य भूमध्य रेखा को पार कर उत्तरायण होते हैं। इस समय से ऋतु परिवर्तन होनी शुरू हो जाती है। वातावरण समशीतोष्ण होने लगता है। ठंडक के कारण जो जड़-चेतन सभी सुप्तावस्था में पड़े होते हैं, वे सब जाग उठते हैं, गतिमान हो जाते हैं। पत्तियों, पुष्पों को नई ऊर्जा मिलती है। समस्त पेड़-पौधे, पल्लव रंग-विरंगे फूलों के साथ खिल उठते हैं। ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर कहते हैं। इस वर्ष नया विक्रम संवत 2067, मार्च 16, 2010 को प्रारंभ हो रहा है।

संवत्सर, सृष्टि के प्रारंभ होने के दिवस के अतिरिक्त, अन्य पावन तिथियों, गौरवपूर्ण राष्ट्रीय, सांस्कृतिक घटनाओं के साथ भी जुड़ा है। रामचन्द्र का राज्यारोहण, धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म, आर्य समाज की स्थापना तथा चैत्र नवरात्र का प्रारंभ आदि जयंतियां इस दिन से संलग्न हैं। इसी दिन से मां दुर्गा की उपासना, आराधना, पूजा भी प्रारंभ होती है। यह वह दिन है, जब भगवान राम ने रावण को संहार कर, जन-जन की दैहिक-दैविक-भौतिक, सभी प्रकार के तापों से मुक्त कर, आदर्श रामराज्य की स्थापना की। सम्राट विक्रमादित्य ने अपने अभूतपूर्व पराक्रम द्वारा शकों को पराजित कर, उन्हें भगाया, और इस दिन उनका गौरवशाली राज्याभिषेक किया गया।

आप सभी को भारतीय नववर्ष विक्रमी सम्वत 2067 और चैत्री नवरात्रारंभ पर हार्दिक शुभकामनायें. आप सभी के लिए यह नववर्ष अत्यन्त सुखद हो, शुभ हो, मंगलकारी व कल्याणकारी हो, नित नूतन उँचाइयों की ओर ले जाने वाला हो !!

सोमवार, 8 मार्च 2010

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के 100 साल

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरूआत 1900 के आरंभ में हुई थी। वर्ष 1908 में न्यूयार्क की एक कपड़ा मिल में काम करने वाली करीब 15 हजार महिलाओं ने काम के घंटे कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट का अधिकार देने के लिए प्रदर्शन किया था। इसी क्रम में 1909 में अमेरिका की ही सोशलिस्ट पार्टी ने पहली बार ''नेशनल वुमन-डे'' मनाया था। वर्ष 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं की अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस मनाने का फैसला किया गया और 1911 में पहली बार 19 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। इसे सशक्तिकरण का रूप देने हेतु ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विट्जरलैंड में लाखों महिलाओं ने रैलियों में हिस्सा लिया. बाद में वर्ष 1913 में महिला दिवस की तारीख 8 मार्च कर दी गई। तब से हर 8 मार्च को विश्व भर में महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है.

***अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनायें ***

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

त्यौहारों की कड़ी में अब विशिष्ट दिवस भी

आजकल भूमंडलीकरण का दौर है. जो त्यौहार कल तक देश की सीमाओं से आबद्ध थे, आज उनका भी भूमंडलीकरण हो गया है. पारंपरिक त्यौहारों से परे तमाम दिन किसी विशिष्ट विषय को लेकर सेलिब्रेट किये जा रहे हैं. इनमें आपसी रिश्तों से लेकर हमारे परिवेश तक के विषय शामिल हैं. मसलन-नारी दिवस, पर्यावरण दिवस, मदर्स डे, फादर्स डे, गौरैया दिवस इत्यादि. इनका उद्देश्य हमारी नित्य व्यस्त होती दिनचर्या में ठहरकर किसी चीज पर विचार करना है. अब 'उत्सव के रंग' में हम ऐसे भी विशिष्ट दिवसों के बारे में चर्चा करेंगे. इन दिवसों के पीछे छुपे जीवन-मूल्यों को समझने की कोशिश करेंगें. आवश्यकतानुसार इन विषयों से सम्बंधित रचनाएँ भी प्रस्तुत करेंगें !!

मंगलवार, 2 मार्च 2010

कानपुर में होली की मस्ती

कानपुर में होली का अपना अलग ही इतिहास है। यहाँ अवस्थित जाजमऊ और उससे लगे बारह गाँवों में पाँच दिन बाद होली खेली जाती है। बताया जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक की हुकुमत के दौरान ईरान के शहर जंजान के शहर काजी सिराजुद्दीन के शिष्यों के जाजमऊ पहुँचने पर तत्कालीन राजा ने उन्हें जाजमऊ छोड़ने का हुक्म दिया तो दोनो पक्षों में जंग आरम्भ हो गइ। इसी जंग के बीच राजा जाज का किला पलट गया और किले के लोग मारे गये। संयोग से उस दिन होली थी पर इस दुखद घटना के चलते नगरवासियों ने निर्णय लिया कि वे पाँचवें दिन होली खेलेंगे, तभी से यहाँ होली के पाँचवें दिन पंचमी का मेला लगता है।
इसी प्रकार वर्ष 1923 के दौरान होली मेले के आयोजन को लेकर कानपुर के हटिया में चन्द बुद्धिजीवियों व्यापारियों और साहित्यकारों (गुलाबचन्द्र सेठ, जागेश्वर त्रिवेदी, पं0 मुंशीराम शर्मा सोम, रघुबर दयाल, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खाँ) की एक बैठक हो रही थी। तभी पुलिस ने इन आठों लोगों को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफतार करके सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बन्द कर दिया। इनकी गिरफ्तारी का कानपुर की जनता ने भरपूर विरोध किया। आठ दिनों पश्चात् जब उन्हें रिहा किया गया, तो उस समय ‘अनुराधा-नक्षत्र’ लगा हुआ था। जैसे ही इनके रिहा होने की खबर लोगों तक पहुँची, लोग कारागार के फाटक पर पहुँच गये। उस दिन वहीं पर मारे खुशी के पवित्र गंगा जल में स्नान करके अबीर-गुलाल और रंगों की होली खेली। देखते ही देखते गंगा तट पर मेला सा लग गया। तभी से परम्परा है कि होली से अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली की मस्ती छायी रहती है और आठवें दिन प्रतिवर्ष गंगा तट पर गंगा मेले का आयोजन किया जाता है।

सोमवार, 1 मार्च 2010

बरसाने की लट्ठमार होली

होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुक्ल नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है। इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। सखागण मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं। बरसाने की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं। इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आनन्द लेते हैं।

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

विविधता में एकता की प्रतीक : होली

होली को लेकर देश के विभिन्न अंचलों में तमाम मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिका दहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस से जोड़कर पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न हो देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्जवलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है।
मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में अवस्थित धूंधड़का गाँव में होली तो बिना रंगों के खेली जाती है और होलिकादहन के दूसरे दिन ग्रामवासी अमल कंसूबा (अफीम का पानी) को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं और सभी ग्रामीण मिलकर उन घरों में जाते हैं जहाँ बीते वर्ष में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो चुकी होती है। उस परिवार को सांत्वना देने के साथ होली की खुशी में शामिल किया जाता है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

बच्चों के उत्पात से आरंभ हुआ होलिका-दहन का

होलिका-दहन पीछे कई मान्यताएं हैं. उनमें से एक यह भी है. भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सदी-गर्मी-बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंतत: भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी। धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकड़ियाँ व घास-फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला-गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप ‘धुलैंडी’ धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

यूँ आरंभ हुआ होलिका-दहन व होली

होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसका लोग बेसब्री के साथ इंतजार करते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में होली मनाई जाती है। रबी की फसल की कटाई के बाद वसन्त पर्व में मादकता के अनुभवों के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व उत्साह और उल्लास का परिचायक है। अबीर-गुलाल व रंगों के बीच भांग की मस्ती में फगुआ गाते इस दिन क्या बूढे व क्या बच्चे, सब एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं।

नारद पुराण के अनुसार दैत्य राज हिरण्यकश्यप को यह घमंड था कि उससे श्रेष्ठ दुनिया में कोई नहीं, अत: लोगों को ईश्वर की पूजा करने की बजाय उसकी पूजा करनी चाहिए। पर उसका बेटा प्रहलाद जो कि विष्णु भक्त था, ने हिरण्यकश्यप की इच्छा के विरूद्ध ईश्वर की पूजा जारी रखी। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को प्रताड़ित करने हेतु कभी उसे ऊंचे पहाड़ों से गिरवा दिया, कभी जंगली जानवरों से भरे वन में अकेला छोड़ दिया पर प्रहलाद की ईश्वरीय आस्था टस से मस न हुयी और हर बार वह ईश्वर की कृपा से सुरक्षति बच निकला। अंतत: हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसके पास एक चमत्कारी चुनरी थी, जिसे ओढ़ने के बाद अग्नि में भस्म न होने का वरदान प्राप्त था, की गोद में प्रहलाद को चिता में बिठा दिया ताकि प्रहलाद भस्म हो जाय। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था, ईश्वरीय वरदान के गलत प्रयोग के चलते चुनरी ने उड़कर प्रहलाद को ढक लिया और होलिका जल कर राख हो गयी और प्रहलाद एक बार फिर ईश्वरीय कृपा से सकुशल बच निकला। दुष्ट होलिका की मृत्यु से प्रसन्न नगरवासियों ने उसकी राख को उड़ा-उड़ा कर खुशी का इजहार किया। मान्यता है कि आधुनिक होलिका दहन और उसके बाद अबीर-गुलाल को उड़ाकर खेले जाने वाली होली इसी पौराणिक घटना का स्मृति प्रतीक है।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

वसंती हवाओं में चढ़ने लगा वेलेण्टाइन-डे का खुमार

वसंत का मौसम आ गया है। मौसम में रूमानियत छाने लगी है। हर कोई चाहता है कि अपने प्यार के इजहार के लिए उसे अगले वसंत का इंतजार न करना पड़े। सारी तैयारियां आरम्भ हो गई हैं। प्यार में खलल डालने वाले भी डंडा लेकर तैयार बैठे हैं। भारतीय संस्कृति में ऋतुराज वसंत की अपनी महिमा है। वेदों में भी प्रेम की महिमा गाई गई है। यह अलग बात है कि हम जब तक किसी चीज पर पश्चिमी सभ्यता का ओढ़ावा नहीं ओढ़ा लेते, उसे मानने को तैयार ही नहीं होते। ‘योग‘ की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘योगा‘ होकर आयातित हुआ। ऋतुराज वसंत और इनकी मादकता की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘वेलेण्टाइन‘ के पंखों पर सवार होकर अपनी खुमारी फैलाने लगे।

प्रेम एक बेहद मासूम अभिव्यक्ति है। मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान एक जगह लिखते हैं-‘‘जब पहली बार प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आंखें खोली थीं और अपनी जोशीली अंगुलियों से मेरी रूह को छुआ था, तब दिन सपनों की तरह और रातें विवाह के उत्सव की तरह बीतीं।‘‘ अथर्ववेद में समाहित प्रेम गीत भला किसको न बांध पायेंगे। जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं, वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है?

फिलहाल वेलेण्टाइन-डे का खुमार युवाओं पर चढ़कर बोल रहा है। कोई इसी दिन पण्डित से कहकर अपना विवाह-मुहूर्त निकलवा रहा है तो कोई इसे अपने जीवन का यादगार लम्हा बनाने का दूसरा बहाना ढूंढ रहा है। एक तरफ नैतिकता की झंडाबरदार सेनायें वेलेण्टाइन-डे का विरोध करने और इसी बहाने चर्चा में आने का बेसब्री से इंतजार कर रही हैं-‘करोगे डेटिंग तो करायेंगे वेडिंग।‘ तो अब वेलेण्टाइन डे के बहाने पण्डित जी की भी बल्ले-बल्ले है। जब सबकी बल्ले-बल्ले हो तो भला बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कैसे पीछे रह सकती हैं। ‘प्रेम‘ रूपी बाजार को भुनाने के लिए उन्होंने ‘वेलेण्टाइन-उत्सव‘ को बकायदा 11 दिन तक मनाने की घोषणा कर दी है। हर दिन को अलग-अलग नाम दिया है और उसी अनुरूप लोगों की जेब के अनुरूप गिट भी तय कर लिये हैं। यह उत्सव 5 फरवरी को ‘फ्रैगरेंस डे‘ से आरम्भ हुआ जो कि 15 फरवरी को ‘फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे‘ के रूप में खत्म होगा। यह भी अजूबा ही लगता है कि शाश्वत प्रेम को हमने दिनों की चहरदीवारी में कैद कर दिया है। वेलेण्टाइन-डे के बहाने वसंत की मदमदाती फिजा में अभी से ‘फगुआ‘ खेलने की तैयारियां आरम्भ हो चुकी हैं।

5 फरवरी - फ्रैगरेंस डे
6 फरवरी - टैडीबियर डे
7 फरवरी - प्रपोज एण्ड स्माइल डे
8 फरवरी - रोज स्माइल प्रपोज डे
9 फरवरी - वेदर चॉकलेट डे
10 फरवरी - चॉकलेट मेक ए फ्रेंड टैडी डे
11 फरवरी - स्लैप कार्ड प्रामिस डे
12 फरवरी - हग चॉकलेट किस डे
13 फरवरी - किस स्वीट हर्ट हग डे
14 फरवरी - वैलेण्टाइन डे
15 फरवरी - फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे

आकांक्षा यादव

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

भारत में भी फैल रहा है ''वेडिंग-रिंग्स डे''

संसार में कई चीजें ऐसी होती हैं, जो हमें यूँ ही भाने लगती हैं। भारतीय संस्कृति में अधिकतर चीजें हमारे रीति-रिवाजों एवं संस्कारों से उद्गारित हैं तो पाश्चात्य संस्कृति में बाजार के प्रादुर्भाव से। ऋतुराज वसंत के आगमन के साथ ही चारो तरफ प्यार का खुमार चढ़ने लगता है। देवी सरस्वती की आराधना से लेकर होली की तैयारियों का इंतजाम देखते ही बनता है। पाश्चात्य संस्कृति का वैलेन्टाइन डे भी बहुत कुछ ऋतुराज वसंत से प्रभावित लगता है। फर्क मात्र इतना है कि भारतीय संस्कृति में जो चीजें संस्कारों के तहत होती हैं, पाश्चात्य संस्कृति में वही खुल्लम-खुल्ला होती हैं।

पाश्चात्य संस्कृति की ही देन है- सगाई की अंगूठी या इंगेजमेंट रिंग। किसी भी जोड़े के लिए इस रिंग का विशेष महत्व होता है। ईसाई धर्म में इस रिंग की खास पहचान होती है। वहाँ इसे मैरिज रिंग के तौर पर जाना जाता है और यह इस बात का परिचायक होता है कि विवाह हो चुका है। हिन्दू धर्म में रिंग पहनाना धार्मिक रिवाज तो नहीं है, पर रीति अवश्व बन चुकी है। ऐसी मान्यता है कि अनामिका उंगली में इंगेजमेंट/वेडिंग रिंग पहनने की शुरूआत मिस्र और रोम से हुई। मिस्र की सभ्यता में इसका चलन 4800 साल पहले से माना जाता है। तब अनामिका में पहनी जानी वाली इस रिंग को धार्मिक नजरिये से देखा जाता था। अनामिका के बारे में कहा जाता है कि यह दिल से जुड़ी होती है। यही वजह है कि दुनिया के कई देशों में अनामिका में इंगेजमेंट/वेडिंग रिंग पहनने का चलन है। कालान्तर में यह रिवाज भारत में आ गया। हिंदुओं में इंगेजमेंट के समय रिंग पहनाने का चलन है। शादी की अंगूठी अनामिका में ही पहने जाने के पीछे दिलचस्प मान्यता है कि अंगूठा माता-पिता, तर्जनी भाई-बहन, मध्यमा खुद का एवं अनामिका उंगली जीवनसाथी का प्रतिनिधित्व करती है। वैदिक धर्म में अनामिका सूर्य की उंगली मानी जाती है। इसमें सूर्य की रेखा होती है। अगर किसी की कुंडली में सूर्य कमजोर हो तो उसे इसमें सोने की अंगूठी पहनना चाहिए। सूर्य का रंग पीला होता है, इसलिए सोने से फायदा होता है। एक्यूप्रेशर विधि को अपनाने वालों के अनुसार वैवाहिक जीवन में मानसिक तनाव के दौरान भी यह रिंग फायदा देती है। इस उंगली में प्रेशर-प्वाइंट होता है, जिससे रिंग पहनने से आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी होती है।

फिलहाल देश और धर्म की बात छोड़ दे तो इंगेजमेंट/वेडिंग रिंग लोगों की भावनाओं और प्यार से जुड़ी होती है। यह प्यारा अहसास विवाहित लोगों की जिंदगी में ताउम्र बरकरार रहता है। इस रोचक अहसास को महसूस करने हेतु ही 3 फरवरी को प्रतिवर्ष ‘वेडिंग रिंग्स डे‘ मनाने का प्रचलन पाश्चात्य संस्कृति में रहा है, जो अब इण्टरनेट, टी0वी0 चैनलों एवं प्रिन्ट मीडिया के माध्यम से भारत में भी पाँव पसार रहा है। इस दिन एक-दूजे को फिर से रिंग पहनाकर उस अहसास को जीवंत रखने का पल होता है।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नव वर्ष के विभिन्न रूप

नव वर्ष धीरे-धीरे अपने मुकाम की ओर बढ़ रहा है. इसी के साथ उल्लास का पर्व भी आरंभ होता जाता है. कोई डांस-पार्टी इंजॉय करता है तो कोई दिन-दुखियों के साथ नव वर्ष सेलिब्रेट करता है. नव वर्ष के उद्भव की भी अपनी रोचक कहानी है. मानव इतिहास की सबसे पुरानी पर्व परम्पराओं में से एक नववर्ष है। नववर्ष के आरम्भ का स्वागत करने की मानव प्रवृत्ति उस आनन्द की अनुभूति से जुड़ी हुई है जो बारिश की पहली फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागतार्थ पक्षी के प्रथम गान पर या फिर हिम शैल से जन्मी नन्हीं जलधारा की संगीत तरंगों से प्रस्फुटित होती है।

इतिहास के गर्त में झांकें तो प्राचीन बेबिलोनियन लोग अनुमानतः 4000 वर्ष पूर्व से ही नववर्ष मनाते रहे हैं। लेकिन उस समय नववर्ष का ये त्यौहार 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी । रोम के तानाशाह जूलियस सीज़र ने ईसा पूर्व 45वें साल में जब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नववर्ष का उत्सव मनाया गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल, यानि, ईसापूर्व 46 इस्वी को 445 दिनों का करना पड़ा था।

आज विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ नववर्ष अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे । इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है। यह दिन ग्रेगेरियन कैलेंडर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता है। इसी तरह इस्लामिक कैलेंडर का नया साल मुहर्रम होता है। इस्लामी कैलेंडर एक पूर्णतया चन्द्र आधारित कैलेंडर है जिसके कारण इसके बारह मासों का चक्र 33 वर्षों में सौर कैलेंडर को एक बार घूम लेता है । इसके कारण नव वर्ष प्रचलित ग्रेगरी कैलेंडर में अलग-अलग महीनों में पड़ता है। चीनी कैलेंडर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है । यह प्रायः 21 जनवरी से 21 फरवरी के बीच पड़ता है।

***भारत में नव वर्ष के विभिन्न रूप***
भारत के भी विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है । प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है । पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगु नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग+आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह 19 मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ी नव वर्ष दीपावली के दिन होता है। गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है।भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं.इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत है। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था। विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। इस दिन गुड़ी पड़वा और उगादी के रूप में भारत के विभिन्न हिस्सों में नववर्ष मनाया जाता है। वस्तुत: भारत में नववर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

छठि मईया आई न दुअरिया

भारतीय संस्कृति में त्यौहार सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्रभर नहीं हैं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं। सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी क्रियाशील, उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को समर्पित है। माना जाता है कि अमावस्या के छठवें दिन ही अग्नि-सोम का समान भाव से मिलन हुआ तथा सूर्य की सातों प्रमुख किरणें संजीवनी वर्षाने लगी। इसी कारण इस दिन प्रातः आकाश में सूर्य रश्मियों से बनने वाली शक्ति प्रतिमा उपासना के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। वस्तुतः शक्ति उपासना में षष्ठी कात्यायिनी का स्वरूप है जिसकी पूजा नवरात्रि के छठवें दिन होती है। छठ के पावन पर्व पर सौभाग्य, सुख-समृद्धि व पुत्रों की सलामती के लिए प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर आदि भी ये ही हैं। वैसे भी सूर्य समूचे सौर्यमण्डल के अधिष्ठाता हैं और पृथ्वी पर ऊर्जा व जीवन के स्रोत कहा जाता है कि सूर्य की साधना वाले इस पर्व में लोग अपनी चेतना को जागृत करते हैं और सूर्य से एकाकार होने की अनुभूति प्राप्त कर आनंदित होते है।

छठ पर्व के प्रारंभ के बारे में कई किंवदंतियाँ हैं। मान्यता है कि इस पर्व का उद्भव द्वापर युग में हुआ था। भगवान कृष्ण की सलाह पर सर्वप्रथम कुन्ती ने अपने पुत्र पाण्डवों के लिए छठ पर्व पर व्रत लिया था, ताकि पाण्डवों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवाश कष्टमुक्त गुजरे। इस मान्यता को इस बात से भी बल मिलता है कि कुन्ती पुत्र कर्ण सूर्य का पुत्र था। इसी प्रकार जब पाण्डव जुए में अपना सब कुछ हार गए और विपत्ति में पड़ गये, तब द्रौपदी ने धौम्य ऋषि की सलाह पर छठ व्रत किया। इस व्रत से द्रौपदी की कामनाएं पूरी हुईं और पाण्डवों को उनका खोया राजपाट वापस मिला गया। ऐसी मान्यता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी सूर्य षष्ठी के दिन पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए सूर्य देवता की आराधना की थी, जिसके चलते उन्हें लव-कुश जैसे तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। माँ गायत्री का जन्म भी सूर्य षष्ठी को ही माना जाता है। यही नहीं इसी दिन महर्षि विश्वामित्र के मुख से गायत्री मंत्र निकला था। एक अन्य मत के अनुसार छठ व्रत मूलतः नागकन्याओं से जुड़ा है। इसके अनुसार नागकन्याएं प्रतिवर्ष कश्यप ऋषि के आश्रम में कार्तिक षष्ठी को सूर्य देवता की पूजा करती थीं। संजोगवश एक बार च्यवन ऋषि की पत्नी सुकन्या भी वहाँ पहुँच गई, जिनके पति अक्सर अस्वस्थ रहते थे। नागकन्याओं की सलाह पर सुकन्या ने छठ व्रत उठाया और इसके चलते च्यवन ऋषि का शरीर स्वस्थ और सुन्दर हो गया।

छठ से जुड़ी एक अन्य प्रचलित मान्यता कर्तिकेय के जन्म से संबंधित है। मान्यता है कि भगवान शिव हिमवान की छोटी कन्या उमा के साथ पाणिग्रहण के उपरान्त रति-क्रीड़ा में मग्न हो गये। क्रीड़ा-विहार में सौ दिव्य वर्ष बीत जाने पर भी कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई। इतनी दीर्घावधि के पश्चात भगवान शिव के रूद्र तेज को सहन करेगा, इससे भयभीत होकर सभी देवगण उनकी प्रार्थना करने लगे- हे प्रभु।़ आप हम देवों पर कृपा करें और देवी उमा के साथ रति-क्रीड़ा से निवृत्त होकर तप में लीन हांे। इस बीच निवृत क्रिया में सर्वोत्तम तेज स्खलित हो गया जिसे अग्नि ने अंगीकार किया। गंगा ने इस रूद्र तेज को हिमालय पर्वत के पाश्र्वभाग में स्थापित किया जो कान्तिवान बालक के रूप में प्रकट हुआ। इन्द्र, मरूत एवं समस्त देवताओं ने बालक को दूध पिलाने तथा लालन-पालन के लिए छह कृतिकाओं को नियुक्त किया। इन कृतिकाओं के कारण ही यह बालक कर्तिकेय के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये छह कृतिकाएं छठी मइया का प्रतीक मानी जाती हैं। तभी से महिलाएं तेजस्वी पुत्र और सुन्दर काया के लिए छठी मइया की पूजा करते हुए व्रत रखती हैं और पुरूष अरोग्यता और समृद्धि के लिए व्रत रखते हैं। बच्चों के जन्म की छठी रात को षष्ठी पूजन का विधान अभी समाज में है।

छठ पर्व की लोकप्रियता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि यह पूरे चार दिन तक जोश-खरोश के साथ निरंतर चलता है। पर्व के प्रारम्भिक चरण में प्रथम दिन व्रती स्नान कर के सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे ‘नहाय खाय‘ कहा जाता है। वस्तुतः यह व्रत की तैयारी के लिए शरीर और मन के शु़िद्धकरण की प्रक्रिया होती है। मान्यता है कि स्वच्छता का ख्याल न रखने से छठी मइया रूष्ठ हो जाती हैं-कोपि-कोपि बोलेंली छठिय मइया, सुना महादेव/मोरा घाटे दुबिया उपरिज गइले, मकड़ी बसेढ़ लेले/हंसि-हंसि बोलेलें महादेव, सुना ए छठिय मइया/हम राउर दुबिया छिलाई देबों। इसी प्रकार घाटो पर वेदियाँ बनाते हुए महिलाएं गाती हैं-एक कवन देव पोखरा खनावेलें, पटिया बन्हावेलें रे/एक कवन देवी छठी के बरत कइलीं, कइसे जल जगाइबि रे/ए घाट मोरे छेके घटवरवा, दुअरे पियदवा लोग रे/एक कोरा मोरा छेक ले गनपति, कइसे जलजगइबि/एक रूपया त देहु घटवरवां, भइया ढेबुआ पियदवा लोग रे। प्रथम दिन सुबह सूर्य को जल देने के बाद ही कुछ खाया जाता है। लौकी की सब्जी, अरवा चावल और चने की दाल पारम्परिक भोजन के रूप में प्रसिद्ध है। दूसरे दिन छोटी छठ (खरना) या लोहण्डा व्रत होता है, जिसमें दिन भर निर्जला व्रत रखकर शाम को खीर रोटी और फल लिया जाता है। खीर नये चावल व नये गुड़ से बनायी जाती है, रोटी में शुद्ध देशी घी लगा होता है। इस दिन नमक का प्रयोग तक वर्जित होता है। व्रती नये वस्त्र धारण कर भोजन को केले के पत्ते पर रखकर पूजा करते हैं और फिर इसे खाकर ही व्रत खोलते हैं।

तीसरा दिन छठ पर्व में सबसे महत्वपूर्ण होता है। संध्या अघ्र्य में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर महिलाएँ घरों में ठेकुआ, पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की सजावट आदि में जुटते हैं। सूर्यास्त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा हो जाते हैं। छठ पूजा के पारम्परिक गीत गाए जाते हैं और बच्चे आतिशबाजी छुड़ाते हैं। सूर्यदेव जब अस्ताचल की ओर जाते हैं तो महिलायें आधी कमर तक पानी में खड़े होकर अघ्र्य देती हैं। अघ्र्य देने के लिए सिरकी के सूप या बाँस की डलिया में पकवान, मिठाइयाँ, मौसमी फल, कच्ची हल्दी, सिंघाड़ा, सूथनी, गन्ना, नारियल इत्यादि रखकर सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है और मन्नतें माँंगी जाती हैं- बांस की बहंगिया लिये चले बलका बसवंा लचकत जाय/तोहरे शरणियां हे मोर बलकवा/हे दीनानाथ मोरे ललवा के द लंबी उमरिया। मन्नत पूरी होने पर कोसी भरना पड़ता है। जिसके लिए महिलाएँ घर आकर 5 अथवा 7 गन्ना खड़ा करके उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। निर्जला व्रत जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अन्तिम एवं चैथे दिन सूर्योदय अघ्र्य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन आरम्भ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही ‘केलवा के पात पर उगलन सूरजमल‘, ‘उगी न उदित उगी यही अंगना‘ एवं ‘प्रातः दर्शन दीहिं ये छठी मइया‘ जैसे भजन गीतों के बीच सूर्यदेव को पुत्र, पति या ब्राह्मण द्वारा व्रती महिलाओं के हाथ से गाय के कच्चे दूध से अध्र्य दिलाया जाता है और सूर्य देवता की बहन माता छठ को विदाई दी जाती है। माना जाता है कि छठ मईया दो दिन पहले मायके आई थीं, जिन्हें पूजन-अर्चन के बाद ‘मोरे अंगना फिर अहिया ये छठी मईया‘ की भावना के साथ ससुराल भेज दिया जाता है। इसके बाद छठ मईया चैत माह में फिर मायके लौटती हैं। छठ मईया को ससुराल भेजने के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं और प्रसाद लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं। व्रती की सेवा और व्रत की सामग्री का अपना अलग ही महत्व है। किसी गरीब को व्रत की सामग्री उपलब्ध कराने से व्रती के बराबर ही पुण्य मिलता है। इसी प्रकार यदि अपने घर के बगीचे में लगे फल को किसी व्रती को पूजा के लिए दिया जाता है, तो भी पुण्य मिलता है। यहाँ तक की व्रती की डलिया व्रत को वेदी तक पहुँचाकर, उसके कपड़े धुलकर भी पुण्य कमाया जाता है। व्रत रखने वाले घरों में माता की विदाई पर सफाई नहीं की जाती क्योंकि मान्यता है कि बेटी की विदाई या कथा आदि के बाद घरों में झाड़ू नहीं लगाई जाती।

म्ूालतः बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोकरंजकता और नगरीकरण के साथ गाँवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है- छठि मईया आई न दुअरिया। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती, न कोई मठ-मंदिर, न कोई अवतारी पुरूष और न ही कोई शास्त्रीय कर्मकाण्ड होता है। आडम्बरों से दूर प्रत्यक्षतः प्रकृति के अवलंब सूर्य देवता को समर्पित एवं पवित्रता, निष्ठा व अशीम श्रद्धा को सहेजे छठ पर्व मूलतः महिलाओं का माना जाता है, जिन्हें पारम्परिक शब्दावली में ‘परबैतिन‘ कहा जाता है। पर छठ व्रत स्त्री-पुरूष दोनों ही रख सकते हैं। इस पर्व पर जब सब महिलाएं इकट्ठा होती हैं तो बरबस ही ये गीत गूँज उठते हैं- केलवा जे फरला घवध से, तो ऊपर सुगा मड़राय/तीरवा जो मरबो धनुष से, सुगा गिरे मुरछाय।

भारतीय संस्कृति मंे समाहित पर्व अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादाद्म्य स्थापित करते हैं। जब छठ पर्व पर महिलाएँ गाती हैं- कौने कोखी लिहले जनम हे सूरज देव या मांगी ला हम वरदान हे गंगा मईया....... तो प्रकृति से लगाव खुलकर सामने आता है। इस दौरान लोक सहकार और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकड़ियों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।

रविवार, 18 अक्टूबर 2009

श्री कृष्ण से जुड़ी है गोवर्धन पूजा

दीपवाली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपक्ष को गोवर्धन पूजा की जाती है। इस पर्व पर गाय के गोबर से गोवर्धन की मानव आकृति बना उसके चारों तरफ गाय, बछडे़ और अन्य पशुओं के साथ बीच में भगवान कृष्ण की आकृति बनाई जाती है। इसी दिन छप्पन प्रकार की सब्जियों द्वारा निर्मित अन्नकूट एवं दही-बेसन की कढ़ी द्वारा गोवर्धन का पूजन एवं भोग लगाया जाता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत में यह पर्व हमें पशुओं मुख्यतः गाय, पहाड़, पेड़-पौधों, ऊर्जा के रूप में गोबर व अन्न की महत्ता बताता हैै। गाय को देवी लक्ष्मी का प्रतीक मानकर लक्ष्मी पूजा के बाद गौ-पूजा की भी अपने देश में परम्परा रही है।
पौराणिक मान्यतानुसार द्वापर काल में अपने बाल्य काल में श्री कृष्ण ने नन्दबाबा, यशोदा मैया व अन्य ब्रजवासियों को बादलों के स्वामी इन्द्र की पूजा करते हुए देखा ताकि इंद्र देवता वर्षा करें और उनकी फसलें लहलहायें व वे सुख-समृद्धि की ओर अग्रसर हों। श्रीकृष्ण ने ग्रामवासियों को समझाया कि वर्षा का जल हमें गोवर्धन पर्वत से प्राप्त होता है न कि इंद्र की कृपा से। इससे सहमत होकर ग्रामवासियों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा आरम्भ कर दी। श्रीकृष्ण ब्रजवासियांे को इस बात का विश्वास दिलाने के लिए कि गोवर्धन जी उनकी पूजा से प्रसन्न हैं, पर्वत के अंदर प्रवेश कर गए व सारी समाग्रियों को ग्रहण कर लिया और अपने दूसरे स्वरूप मंे ब्रजवासियों के साथ खडे़ होकर कहा-देखो! गोवर्धन देवता प्रसन्न होकर भोग लगा रहे हैं, अतः उन्हें और सामाग्री लाकर चढ़ाएं। इंद्र को जब अपनी पूजा बंद होने की बात पता चली तो उन्हांेने अपने संवर्तक मेघों को आदेश दिया कि वे ब्रज को पूरा डुबो दें। भारी वर्षा से घबराकर जब ब्रजवासी श्रीकृष्ण के पास पहुँचे तो उन्होंनेे उनके दुखों का निवारण करने हेतु अपनी तर्जनी पर पूरे गोवर्धन पर्वत को ही उठा लिया। पूरे सात दिनों तक वर्षा होती रही पर ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित पडे़ रहे। सुदर्शन चक्र ने संवर्तक मेघों के जल को सुखा दिया। अंततः पराजित होकर इंद्र श्रीकृष्ण के पास आए और क्षमा मांगी। उस समय सुरभि गाय ने श्रीकृष्ण का दुग्धाभिषेक किया और इस अवसर पर छप्पन भोग का भी आयोजन किया गया। तब से भारतीय संस्कृति में गोवर्धन पूजा और अन्नकूट की परम्परा चली आ रही है।

शनिवार, 17 अक्टूबर 2009

विभिन्न रूप हैं दीपावली के

भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े माॅल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल आॅफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं।
दीपावली भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जिसका बेसब्री से इंतजार किया जाता है। दीपावली माने ष्दीपकों की पंक्तिष्। दीपावली पर्व के पीछे मान्यता है कि रावण- वध के बीस दिन पश्चात भगवान राम अनुज लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ चैदह वर्षों के वनवास पश्चात अयोध्या वापस लौटे थे। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में नगरवासियों ने भगवान राम के स्वागत मंे पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी दीपावली के दिन भगवान राम, लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट मंे विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट मंे मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामद्गिरि की परिक्रमा करते हैं और दीप दान करते हैं। दीपावली के संबंध में एक प्रसिद्ध मान्यतानुसार मूलतः यह यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं।

सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै। दीपावली से जुड़ी एक अन्य मान्यतानुसार राजा बालि ने देवताओं के साथ देवी लक्ष्मी को भी बन्दी बना लिया। देवी लक्ष्मी को मुक्त कराने भगवान विष्णु ने वामन का रूप धरा और देवी को मुक्त कराया। इस अवसर पर राजा बालि ने भगवान विष्णु से वरदान लिया था कि जो व्यक्ति धनतेरस, नरक-चतुर्दशी व अमावस्या को दीपक जलाएगा उस पर लक्ष्मी की कृपा होगी। तभी से इन तीनों पर्वांे पर दीपक जलाया जाता है और दीपावली के दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। धनतेरस के दिन धन एवं ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी की दीपक जलाकर पूजा की जाती है और प्रतीकात्मक रूप में लोग सोने-चांदी व बर्तन खरीदते हैं। धनतेरस के अगले दिन अर्थात कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाने की परंपरा है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान कृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध किया था। नरक चतुर्दशी पर घरों की धुलाई-सफाई करने के बाद दीपक जलाकर दरिद्रता की विदाई की जाती है। वस्तुतः इस दिन दस महाविद्या में से एक अलक्ष्मी (धूमावती) की जयंती होती है। अलक्ष्मी दरिद्रता की प्रतीक हैं, इसीलिए चतुर्दशी को उनकी विदाई कर अगले दिन अमावस्या को दस महाविद्या की देवी कमलासीन माँ लक्ष्मी (देवी कमला) की पूजा की जाती है। नरक चतुर्दशी को ‘छोटी दीपावली’ भी कहा जाता है। दीपावली के दिन लोग लईया, खील, गट्टा, लड्डू इत्यादि प्रसाद के लिए खरीदते हैं और शाम होते ही वंदनवार व रंगोली सजाकर लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं और फिर पूरे घर में दीप जलाकर माँ लक्ष्मी का आवाह्न करते हैं। व्यापारी वर्ग पारंपरिक रूप से दीपावली के दिन ही नई हिसाब-बही बनाता है और किसान अपने खेतों पर दीपक जलाकर अच्छी फसल होने की कामना करते हंै। इसके बाद खुशियों के पटाखों के बीच एक-दूसरे से मिलने और उपहार व मिठाईयों की सौगात देने का सिलसिला चलता है।

दीपावली का त्यौहार इस बात का प्रतीक है कि हम इन दीपों से निकलने वाली ज्योति से सिर्फ अपना घर ही रोशन न करें वरन् इस रोशनी में अपने हृदय को भी आलोकित करें और समाज को राह दिखाएं। दीपक सिर्फ दीपावली का ही प्रतीक नही वरन् भारतीय सभ्यता में इसके प्रकाश को इतना पवित्र माना गया है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है। यहाँ तक कि परिवार में किसी की गंभीर अस्वस्थता अथवा मरणासन्न स्थिति होने पर दीपक बुझ जाने को अपशकुन भी माना जाता है। अगर हम इतिहास के गर्भ में झांककर देखें तो सिंधु घाटी सभ्यता की ख्ुादाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनज़ोदड़ो की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की श्रृंखला थी। इसमें कोई शक नहीं कि दीपकों का आविर्भाव सभ्यता के साथ ही हो चुका था, पर दीपावली का जन-जीवन में पर्व रूप में आरम्भ श्री राम के अयोध्या आगमन से ही हुआ।

भारत के विभिन्न राज्यों में इस त्यौहार को विभिन्न रूपों मे मनाया जाता है। वनवास पश्चात श्री राम के अयोध्या आगमन को उनका दूसरा जन्म मान केरल में कुछ अदिवासी जातियां दीपावली को राम के जन्म-दिवस के रूप में मनाती हंै। गुजरात में नमक को साक्षात् लक्ष्मी का प्रतीक मान दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है तो राजस्थान में दीपावली के दिन घर मंे एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाईयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हंै। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाये तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात् लक्ष्मी का आगमन माना जाता है। उत्तरांचल के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं तो हिमाचल प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियां इस दिन यक्ष पूजा करती हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में दीपावली को काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यहाँ पर यह तथ्य गौर करने लायक है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।
ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी वर्ष 1833 में दीपावली के दिन ही प्राण त्यागे थे। देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी दीपावली का त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। वर्ष 2005 में ब्रिटिश संसद में दीपावली-पर्व के उत्सव पर भारतीय नृत्य, संगीत, रंगोली, संस्कृत मंत्रों के उच्चारण व हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना का आयोजन किया गया। ब्रिटेन के करीब सात लाख हिंदू इस पर्व को उत्साह से मनाते हैं। सन् 2004 में तो ब्रिटेन ने इस पर्व पर डाक-टिकट भी जारी किया था।
भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धनदेवी लक्ष्मी के कई नाम और रूप मिलते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्राकट्य का दिन माना जाता है। भारतीय परम्परा उल्लू को लक्ष्मी जी का वाहन मानती है पर तमाम भारतीय ग्रन्थों में कुछ अन्य वाहनों का भी उल्लेख है। महालक्ष्मी स्त्रोत में गरूड़ तो अथर्ववेद के वैवर्त ने हाथी को लक्ष्मी जी का वाहन बताया गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू है। लेकिन प्राचीन यूनान में धन सम्पदा की देवी के तौर पर ूपजी जाने वाली ‘हेरा‘ का वाहन मयूर है। तमाम देशों में लक्ष्मी पूजन के पुरातात्विक प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। कम्बोडिया में मिली एक मूर्ति में शेषनाग पर आराम कर रहे विष्णुजी के पैर एक महिला दबा रही है, जो लक्ष्मी है। कम्बोडिया में ही लक्ष्मी की कांस्य प्रतिमा भी मिली है। प्राचानी यूनानी सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति उत्कीर्ण है। रोम के लम्पकश से प्राप्त एक चाँदी की थाली पर भी लक्ष्मी की आकृति है। इसी प्रकार श्रीलंका के पोलेरूमा में पुरातात्विक खनन के दौरान अन्य भारतीय देवी-देवताओं के साथ-साथ लक्ष्मी की मूर्ति प्राप्त हुई थी। नेपाल, थाईलैण्ड, जावा, सुमात्रा, मारीशस, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका, जापान इत्यादि देशों में धन की देवी की पूजा की जाती है। यूनान में आइरीन, रोम में डिआ लुक्री, प्राचीन रोम में देवी फार्चूना, तो ग्रीक परम्परा में दमित्री को धन की देवी रूप में पूजा जाता है। जिस तरह भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी-काली-सरस्वती का धार्मिक महत्व है, उसी प्रकार यूरोप में एथेना-मिनर्वा-एलोरा का महत्व है।

कोस-कोस पर बदले भाषा, कोस-कोस पर बदले बानी-वाले भारतीय समाज में एक ही त्यौहार को मनाने के अन्दाज में स्थान परिवर्तन के साथ कुछ न कुछ परिवर्तन दिख ही जाता है। वक्त के साथ दीपावली का स्वरूप भी बदला है। पारम्परिक सरसों के तेल की दीपमालायें न सिर्फ प्रकाश व उल्लास का प्रतीक होती हैं बल्कि उनकी टिमटिमाती रोशनी के मोह में घरों के आसपास के तमाम कीट-पतंगे भी मर जाते हैं, जिससे बीमारियों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा देशी घी और सरसों के तेल के दीपकों का जलाया जाना वातावरण के लिए वैसे ही उत्तम है जैसे जड़ी-बूटियां युक्त हवन सामग्री से किया गया हवन। पर वर्तमान में जिस प्रकार बल्बों और झालरों का प्रचलन बढ़ रहा है, वह दीपावली के परम्परागत स्वरूप के ठीक उलटा है। एक ओर कोई व्यक्ति बीमार है तो दूसरी ओर अन्य लोग बिना उसके स्वास्थ्य की परवाह किए लाउडस्पीकर बजाए जा रहे हैं, एक व्यक्ति समाज में अपनी हैसियत दिखाने हेतु हजारों रुपये के पटाखे फोड़ रहा है तो दूसरी ओर न जाने कितने लोग सिर्फ एक समय का खाना खाकर पूरा दिन बिता देते हैं। एक अनुमानानुसार हर साल दीपावली की रात पूरे देश में करीब तीन हजार करोड़ रूपये के पटाखे जला दिए जाते हैं और करोड़ांे रूपये जुए में लुटा दिए जाते हैं। क्या हमारी अंतश्चेतना यह नहीं कहती कि करोड़ों रुपये के पटाखे छोड़ने के बजाय भूखे-नंगे लोगों हेतु कुछ प्रबन्ध किए जायें? क्या पटाखे फोड़कर व जोर से लाउडस्पीकर बजाकर हम पर्यावरण को प्रदूषित नहीं कर रहे हैं? त्यौहार के नाम पर सब छूट है के बहाने अपने को शराब के नशे में डुबोकर मारपीट व अभद्रता करना कहाँ तक जायज है? निश्चिततः इन सभी प्रश्नों का जवाब अगर समय रहते नहीं दिया गया तो अगली पीढ़ियाँ शायद त्यौहारों की वास्तविक परिभाषा ही भूल जायें।

रविवार, 27 सितंबर 2009

अन्याय पर न्याय की विजय का प्रतीक है दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

दशहरा और शस्त्र -पूजा

दशहरे के दिन भारत में कुछ क्षेत्रों में शमी वृक्ष की पूजा का भी प्रचलन है। ऐसी मान्यता है कि अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने हेतु शमी वृक्ष की कोटर में छिपाकर रखे अपने गाण्डीव-धनुष को फिर से धारण किया। इस अवसर पर पाण्डवों ने गाण्डीव-धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष की पूजा कर कृतज्ञता व्यक्त की। तभी से दशहरे के दिन शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की भी पूजा होने लगी। पौराणिक कथाओं में भी शमी वृक्ष के महत्व का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार राजा रघु के पास जब एक साधु दान लेने आया तो राजा को अपना खजाना खाली मिला। इससे क्र्रोधित हो राजा रघु ने इन्द्र पर चढ़ाई की तैयारी कर दी। इन्द्र ने रघु के डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परम्परा आरम्भ हुयी कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को अपनी पगड़ी में धारण करते हैं।

आज भी विजयदशमी पर महाराष्ट्र और राजस्थान में शस्त्र पूजा बड़े उल्लास से की जाती है। इसे महाराष्ट्र मंे ‘सीलांगण’ अर्थात सीमा का उल्लघंन और राजस्थान में "अहेरिया" अर्थात शिकार करना कहा जाता है। राजा विक्रमादित्य ने दशहरे के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना की थी तो छत्रपति शिवाजी को इसी दिन मराठों की कुलदेवी तुलजा भवानी ने औरगंजेब के शासन को खत्म करने हेतु रत्नजड़ित मूठ वाली तलवार "भवानी" दी थी, ऐसी मान्यता रही है। तभी से मराठा किसी भी आक्रमण की शुरूआत दशहरे से ही करते थे और इसी दिन एक विशेष दरबार लगाकर बहादुर मराठा योद्धाओं को जागीर एवं पदवी प्रदान की जाती थी। सीलांगन प्रथा का पालन करते हुए मराठे सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा करते व तत्पश्चात पूर्व निर्धारित खेत में जाकर पेशवा मक्का तोड़ते एवं तत्पश्चात सभी उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूट लेते थे।

राजस्थान के राजपूत भी "अहेरिया" की परम्परा में सर्वप्रथम शमी वृक्ष व शस्त्रों की पूजा करते व तत्पश्चात देवी दुर्गा की मूर्ति को पालकी में रख दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रतीकात्मक युद्ध करते। इतिहास इस परंपरा में "अहेरिया" के चलते दो युद्धों का गवाह भी बना- प्रथमतः, 1434 में बूंदी व चितौड़गढ़ के बीच इस परम्परा ने वास्तविक युद्ध का रूप धारण कर लिया व इसमें राणा कुम्भा की मौत हो गई। द्वितीयतः, महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी पर आसीन होने के बाद पहली विजयदशमी पर उत्ताला दुर्ग में ठहरे मुगल फौजियों का असली अहेरिया (वास्तविक शिकार) करने का संकल्प लिया। इस युद्ध में कई राजपूत सरदार हताहत हुए। आज भी सेना के जवानों द्वारा शस्त्र-पूजा की परम्परा कायम है।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

दशहरे पर रावण की पूजा

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। सामान्यतः त्यौहारों का सम्बन्ध किसी न किसी मिथक, धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा होता है। दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन 'दश' व 'हरा' से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है। रावण में कुछ अवगुण जरुर थे, लेकिन उसमें कई गुण भी मौजूद थे, जिन्हे कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में उतार सकता है। यदि रामायण या राम के जीवन से रावण के चरित्र को निकाल दिया जाएए तो संपूर्ण रामकथा का अर्थ ही बदल जाएगा। स्वयं राम ने रावण के बुद्धि और बल की प्रशंसा की है। रावण-वध के बाद भगवान राम ने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास शिक्षा लेने के लिए भेजा था। पहले तो लक्ष्मण रावण के सिर के पास बैठे, पर जब रावण ने इस स्थित में उन्हें शिक्षा देने से इन्कार कर दिया, तो लक्ष्मण ने एक शिष्य की तरह रावण के चरणों के पास बैठकर शिक्षा ली।

रावण दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकशी एवं विद्वान ब्राहमण विश्रव का पुत्र था। दैत्यराज सुमाली अपनी बेटी कैकशी का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से करना चाहते थे जो उन्हें एक योग्य एवं अति बलवान उत्तराधिकारी दे सके। जब दैत्यराज की इस इच्छा पर कोई भी खरा नहीं उतरा तो कैकशी ने स्वयं विद्वान ब्राहमण विश्रव का चयन किया। विवाह के वक्त ही विश्रव ने कैकशी से कहा था कि चूँकि तुमने मेरा चुनाव गलत क्षण में किया है, अतः तुम्हारा पुत्र बुराई के मार्ग पर जायेगा। रावण के जन्म के समय उसके पिता विश्रव को जब यह ज्ञात हुआ कि उनके बेटे में दस लोगों के बराबर बौद्धिक बल है, तो उन्होंने उसका नाम ‘दशानन‘ रख दिया। रावण के दशानन होने के संबंध में एक अन्य किंवदन्ती है कि उसके विद्धान-ब्राहमण पिता विश्रव ने उसे एक बेशकीमती रत्नों का हार पहनाया था, जिसकी खासियत यह थी कि उससे निकलने वाले प्रकाश से लोगों को रावण के दस सिर और बीस हाथ होने का आभास होता था। अपने माता-पिता के चलते रावण में दैत्य और ब्राहमण दोनों के गुण थे। रावण को न केवल शास्त्रों बल्कि 64 कलाओं में महारत हासिल थी। यहाँ तक कि उसे हाथी और गाय को भी प्रशिक्षित करने की कला का ज्ञान था।

यदि हम अलग.अलग स्थान पर प्रचलित राम कथाओं को जानें, तो रावण को बुरा व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। जैन धर्म के कुछ ग्रंथों में रावण को प्रतिनारायण' कहा गया है। रावण समाज सुधारक और प्रकांड पंडित था। तमिल रामायणकार 'कंब' ने उसे सद्चरित्र कहा है। रावण ने सीता के शरीर का स्पर्श तक नहीं कियाए बल्कि उनका अपहरण करते हुए वह उस भूखंड को ही उखाड़ लाता है, जिस पर सीता खड़ी हैं । गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि रावण जब सीता का अपहरण करने आयाए तो वह पहले उनकी वंदना करता है। 'मन मांहि चरण बंदि सुख माना।' महर्षि याज्ञवल्क्य ने इस वंदना को विस्तारपूर्वक बताया है। 'मां' तू केवल राम की पत्नी नहींए बल्कि जगत जननी है। राम और रावण दोनों तेरी संतान के समान हैं। माता योग्य संतानों की चिंता नहीं करतीए बल्कि वह अयोग्य संतानों की चिंता करती है। राम योग्य पुरुष हैंए जबकि मैं सर्वथा अयोग्य हूंए इसलिए मेरा उद्धार करो मां। यह तभी संभव हैए जब तू मेरे साथ चलेगी और ममतामयी सीता उसके साथ चल पड़ी।

ज्योतिष और आयुर्वेद का ज्ञाता लंकापति रावण तंत्र।मंत्रए सिद्धि और दूसरी कई गूढ़ विद्याओं का भी ज्ञाता था। ज्योतिष विद्या के अलावाए उसे रसायन शास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त था। उसे कई अचूक शक्तियां हासिल थींए जिनके बल पर उसने अनेक चमत्कारिक कार्य संपन्न किए। श्रावण संहिताश् में उसके दुर्लभ ज्ञान के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। वह राक्षस कुल का होते हुए भी भगवान शंकर का उपासक था। उसने लंका में छह करोड़ से भी अधिक शिवलिंगों की स्थापना करवाई थी। यही नहींए रावण एक महान कवि भी था। उसने श्शिव ताण्डव स्त्रोत्मश् की। उसने इसकी स्तुति कर शिव भगवान को प्रसन्न भी किया। रावण वेदों का भी ज्ञाता था। उनकी ऋचाओं पर अनुसंधान कर विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता अर्जित की। वह आयुर्वेद के बारे में भी जानकारी रखता था। वह कई जड़ी.बूटियों का प्रयोग औषधि के रूप में करता था।

रावण भगवान शिव का भक्त होने के साथ-साथ महापराक्रमी भी था। इसी तथ्य के मद्देनजर आज भी कानपुर के शिवाला स्थित कैलाश मंदिर में विजयदशमी के दिन दशानन रावण की महाआरती की जाती है। सन् 1865 में श्रृंगेरी के शंकराचार्य की मौजूदगी में महाराज गुरू प्रसाद द्वारा स्थापित इस मंदिर में शिव के साथ उनके प्रमुख भक्तों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। कालांतर में सन् 1900 मंे महाराज शिवशंकर लाल ने कैलाश मंदिर परिसर में शिवभक्त रावण का मंदिर बनवाया और देवी के तेइस रूपों की मूर्ति भी स्थापित की। वस्तुतः इसके पीछे यह तर्क था कि भक्त के बगैर ईश्वर अधूरे हैं, इसीलिए भगवान शंकर के मंदिर के बाहर उनके अनन्य भक्त रावण का भी मंदिर बनाया गया। तभी से रावण की महाआरती की परम्परा यहाँ पर कायम है। कानपुर से सटे उन्नाव जिले के मौरावां कस्बे में भी राजा चन्दन लाल द्वारा सन् 1804 में स्थापित रावण की मूर्ति की पूजा की जाती है। यहाँ दशहरे के दिन रामलीला मैदान में 7-8 फुट ऊँचे सिंहासन पर बैठे रावण की विशालकाय पत्थर की मूर्ति की लोग पूजा करते हैं, जबकि एक अन्य पुतला बनाकर रावण दहन करते हैं।

मध्य प्रदेश के मंदसौर में नामदेव वैश्य समाज के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी मंदसौर की थी। अतः रावण को जमाई मानकर उसकी खतिरदारी यहाँ पर भव्य रूप में की जाती है। यहाँ पर रावण के समक्ष मनौती मानने और पूरी होने के बाद रावण की वंदना करने व भोग लगाने की परंपरा रही है। हाल ही में यहाँ रावण की पैतीस फुट उंची बैठी हुई अवस्था में कंक्रीट मूर्ति स्थापित की गई है। इसी प्रकार जोधपुर के लोगों के अनुसार रावण की पत्नी मंदोदरी यहाँ की पूर्व राजधानी मंडोर की रहने वाली थीं व रावण व मंदोदरी के विवाह स्थल पर आज भी रावण की चवरी नामक एक छतरी मौजूद है। हाल ही में अक्षय ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र ने जोधपुर के चांदपोल क्षेत्र में स्थित महादेव अमरनाथ एवं नवग्रह मंदिर परिसर में रावण का मंदिर बनाने की घोषणा की है। इसमें रावण की मूर्ति शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए बनायी जा रही है, जिससे रावण की शिवभक्ति प्रकट होगी और उसका सम्मानीय स्वरूप सामने आयेगा।

मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में स्थित रावणगाँव में रावण को महात्मा या बाबा के रूप में पूजा जाता है। यहाँ रावण बाबा की करीब आठ फीट लंबी पाषाण प्रतिमा लेटी हुयी मुद्रा में है और प्रति वर्ष दशहरे पर इसका विधिवत श्रृंगार करके अक्षत, रोली, हल्दी व फूलों से पूजा करने की परंपरा है। चूंकि रावण की जान उसकी नाभि में बसती थी, अतः यहाँ पर रावण की नाभि पर तेल लगाने की परंपरा है अन्यथा पूजा अधूरी मानी जाती है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ग्रेटर नोएडा के मध्य स्थित बिसरख गाँव को रावण का पैतृक गाँव माना जाता है। बताते हैं कि रावण के पिता विश्रवामुनि इस गाँव के जंगल में शिव भक्ति करते थे एवं रावण सहित उनके तीनों बेटे यहीं पर पैदा हुए। विजय दशमी के दिन जब चारो तरफ रावण का पुतला फूका जाता है, तो बिसरख गाँव के लोग उस दिन शोक मनाते हैं। इस गाँव में दशहरा का त्यौहार नहीं मनाया जाता है। गाँववासियों को मलाल है कि रावण को पापी रूप में प्रचारित किया जाता है जबकि वह बहुत तेजस्वी, बुद्विमान, शिवभक्त, प्रकाण्ड पण्डित एवं क्षत्रिय गुणों से युक्त था। महाराष्ट्र के अमरावती और गढ़चिरौली जिले में 'कोरकू' और 'गोंड' आदिवासी रावण और उसके पुत्र मेघनाद को अपना देवता मानते हैं। अपने एक खास पर्व 'फागुन' के अवसर पर वे इसकी विशेष पूजा करते हैं।

उत्तर भारत में दशहरा का मतलब भले ही रावण दहन से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ हो, पर भारत के अन्य हिस्सों में ही इसे अन्य रूप में मनाया जाता है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

तुलसीदास ने ही सर्वप्रथम आरंभ की रामलीला

भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।''
सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग-प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।

दशहरा के विविध रूप

भारत विविधताओं का देश है, अतः उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हफ्ते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य-संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण -सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही ष्चक्रस्नानष् (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है।

केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से पूजा वैपू के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ष्पूजा इदप्पुष् के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हंै।

गुजरात मंे दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया-रास की झूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ष्गरबोष् के इर्द-गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का आह्मन करती हैं। गरबा के बाद डांडिया-रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है। महाराष्ट्र में दशहरे के दौरान नौ दिन तक माँ दुर्गा की पूजा होती है और दसवे दिन माँ सरस्वती की पूजा होती है। कश्मीर में नौ दिनों तक उपवास के बीच लोग प्रतिदिन झील के मध्य अवस्थित माता खीर भवानी मन्दिर के दर्शन के लिए जाते हैं

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा

नवरात्र और दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा-पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुतः दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवशियों ने दूर्गा-पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नव कृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा-पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्ण देव द्वारा की गई दुर्गा-पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारांे ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 मंे प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारांे से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राह्मणांे ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा-पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।

बंगाल के साथ-साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी0एस0 पी0) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी मंे किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन-समान्य में व्यापक स्थान पा लिया। आज दुर्गा पूजा दुनिया के कई हिस्सों में आयोजित की जाती है। लंदन में प्रथम दुर्गा पूजा उत्सव 1963 में मना, जो अब एक बड़े समारोह में तब्दील हो चुका है।