उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

मैसूर का दशहरा और 'गोम्बे हब्बा' (गुड़ियों का उत्सव)

मैसूर में दशहरे की परंपराओं के साथ यहां का 'गोम्बे हब्बा' (गुड़ियों का उत्सव) विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यह परंपरा मैसूरवासियों के लिए खासी महत्वपूर्ण रही है। यह उसी समय से चली आ रही है जिस समय वाडेयार राजघराने के शासक मैसूर की सत्ता पर आसीन थे। इस नजरिए से मैसूरवासियों की संवेदनाएं तथा बेहतर भावनाएं भी इस परंपरा के साथ काफी करीबी से जुड़ी हुई हैं। बहरहाल, इन दिनों गुड़ियों के मेले को पहले की तरह राजकीय घराने का पृष्ठपोषण न मिल पाने से इसके आकर्षण में कुछ कमी जरूर दिखने लगी है।

उल्लेखनीय है कि गोम्बे हब्बा नवरात्रि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो मैसूर के साथ ही लगभग पूरे राज्य में काफी पसंद किया जाता है। दशहरे के मौके पर प्रत्येक घर में गुड़ियों का मेला जरूर देखने को मिल जाता है। मैसूर पैलेस बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक, इस परंपरा में काफी गहरा अर्थ छिपा है। गोम्बे हब्बा के तहत नौ गुड़ियों की सजावट की जाती है जो देवी दुर्गा या चामुंडेश्वरी के नौ रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन नौ गुड़ियों में महिलाओं की हस्तकला दक्षता की झलक भी मिलती है। कलात्मक रूप से देखा जाए तो पुराने मैसूर में इन गुड़ियों की काफी बारीक सजावट की जाती थी। आम तौर पर घरेलू महिलाएं इन गुड़ियों को तैयार किया करती थीं। इनमें दशहरे के उत्सवी माहौल की झलक देखने का प्रयास भी किया जाता था। बताया जाता है कि यह परंपरा 16वीं सदी के वाडेयार शासक राजा वाडेयार के समय में शुरू हुई थी।

शुरुआती तौर पर गोम्बे हब्बा में देवी गौरी की आकृतियों को प्रतिमाओं में संवारने का प्रयास किया जाता था। दशहरे के नौ दिनों के दौरान इन प्रतिमाओं को देवी दुर्गा के नौ अलग-अलग कल्पित रूप दिए जाते थे। लोग अपने घरों में इन्हीं प्रतिमाओं की पूजा भी किया करते थे। 18 वीं शताब्दी के अंत में यह परंपरा थोड़ी-सी बदल गई। वाडेयार शासकों ने प्रतिमाओं के स्थान पर गुड़ियों की सजावट शुरू कर दी। इसके साथ ही गोम्बे हब्बा की शुरुआत मानी जाती है। राजपरिवार के लोगों ने भी देवी दुर्गा की गुड़ियों में खासी दिलचस्पी लेने लगे। यहां तक, कि मैसूर राजमहल में ही एक खास स्थान गुड़ियों को बनाने तथा उन्हें करीने से सजाने के लिए चिह्नित कर दिया गया। इस स्थान को 'गोम्बे तोट्टी' के नाम से जाना जाता था।

पहले-पहल तो दशहरे का महोत्सव राज परिवार के लोगों के लिए ही हुआ करता था लेकिन आगे चलकर इसे आम लोगों के लिए भी शुरू कर दिया गया। फिर भी, एकबारगी सबको इस उत्सव में शामिल नहीं किया गया। सिर्फ राजदरबार के उच्च-पदस्थ लोगों को ही दशहरे के त्यौहार में शामिल किया गया। धीरे-धीरे कुछेक दशकों बाद इसे सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा। गोम्बे हब्बा के दौरान घरों के बच्चों को (खास तौर पर कन्याओं को) जो गुड़िया सबसे अधिक पसंद होती थी वह उनकी शादी के समय माता-पिता उनके साथ दे दिया करते थे। उन दिनों विवाहित किशोरियों के बीच गुड़ियों के साथ खेलना पसंद किया जाता था। इस परंपरा ने भी गोम्बे हब्बा को पूरे राज्य में अधिक लोकप्रियता दिला दी। इसमें घरों के बच्चे बहुत ही जोश के साथ भाग लिया करते थे क्योंकि गुड़ियों के चयन तथा उनकी सजावट के मामलों में घरों के बड़े-बुजुर्ग बच्चों के साथ जरूर सलाह-मशविरा किया करते थे। इससे गोम्बे हब्बा में उनकी मस्ती दोगुनी हो जाती थी।

वर्तमान में घरों में आयोजित किए जाने वाले इस गोम्बे हब्बा में गुड़ियों को नौ स्तरों पर सजाया जाता है। प्रत्येक दिन नई गुड़िया बनाकर उसे पिछले दिनों की गुड़ियों के साथ शामिल किया जाता है। इन्हें देवी दुर्गा के नौ नामों शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिध्दिरात्रि के नामों से ही पुकारा जाता है। माना जाता है कि यह गुड़ियाएं दैवी स्वरूप धारण कर अशुभ आत्माओं से परिवारों की रक्षा करती हैं।

वाडेयार शासकों का राज्यकाल समाप्त होने के बाद गुड़िया बनाने की कला को पर्याप्त पृष्ठपोषण न मिलने के कारण इनके कलात्मक पक्ष पर अब किसी की नजर लगभग नहीं के बराबर पड़ती है। गुड़िया बनाने की इस कला को प्रोत्साहन देने के लिए शहर की एक कला दीर्घा ने दशहरे के दौरान 'बोम्बे मने-2009' के नाम से एक विशेष उत्सव का आयोजन किया है। इस उत्सव में कर्नाटक के साथ ही आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के कलाकारों द्वारा बनाई गई गुड़ियों का प्रदर्शन किया गया है। इन कलाकारों ने प्रत्येक गुड़िया को खास रंग-रूप दिया है।

साभार : दक्षिण भारत राष्ट्रमत

7 टिप्‍पणियां:

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

एकदम नई और रोचक जानकारी...आभार.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

sundar post badhai

Shahroz ने कहा…

दशहरा आने वाला है..अभी से इतनी रोचक जानकारियाँ. ज्ञान भी-मनोरंजन भी....बधाई.

शरद कोकास ने कहा…

हस्तशिल्प को प्रोत्साहन देने के लिए यह अच्छी परम्परा है ।

Amit Kumar Yadav ने कहा…

माना जाता है कि यह गुड़ियाएं दैवी स्वरूप धारण कर अशुभ आत्माओं से परिवारों की रक्षा करती हैं...रोचक पोस्ट..आभार.

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

परम्पराओं के बिना त्यौहारों का मजा क्या...अच्छा लेख.

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा…

विजयदशमी की शुभकामनायें.