उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

विश्व की प्रथम रामलीला

महाकवि तुलसीदासजी सांसारिक बंधन से विरक्त होकर वैराग्य धारणकर रामधुन में लीन धार्मिक तीर्थस्थलों का भ्रमण करने ramlilaनिकल पड़े। पूजा पाठ, ध्यान - धर्म तथा आराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए 1593 में वे अयोध्या पहुंच गये। प्रतिदिन भोर में ही सरजू तट पर पहुंचना, राम का ध्यान लगाना, जप - तप करना इत्यादि रामभक्त तुलसीदासजी की दिनचर्या थी।

उसी तट पर एक तपस्वी महासंत समाधिस्थ रहते थे। तुलसीदासजी प्रतिदिन उस समाधिस्थ संत को दूर से ही साष्टांग दंडवत कर अभिवादन करते थे। संत के प्रति श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत अपने मन में उनसे साक्षात्कार करने, आशीर्वाद लेने और ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिये तुलसीदासजी वापस चले जाया करते थे। एक दिन वह शुभ घड़ी आ ही गयी, जब संत समाधि से बाहर आये। उसी समय तुलसीदासजी ने साष्टांग दंडवत किया। तपस्वी संत ने तुलसीदास को देखकर मन ही मन पहचान लिया कि प्रभु ने सही व्यक्ति को मेरे पास भेज दिया है। तपस्वी संत ने तुलसीदास को अपने हाथों उठाया, आशीर्वाद दिया और संकेत किया कि मेरे साथ आओ। वे तुलसीदास को अपने साथ लेकर अपनी कुटिया में पहुंचे। उस कुटिया में राम की मूर्ति के अलावा मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को फूलों से सजा कर रखा हुआ था। तपस्वी संत ने तुलसीदास से कहा कि ये मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल सभी कुछ तुमको सौंपता हूं। तुम वास्तव में प्रभु श्रीराम के उपासक हो इसीलिए प्रभु राम ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। इस मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को कोई सामान्य वस्तु न समझना, यह सभी प्रभु राम के स्मृति चिह्न हैं। यह धनुष-बाण कभी प्रभु राम के करकमलों में रह चुका है। इन खड़ाऊं और कमंडल को प्रभु राम के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त है। यह मुकुट श्रीराम के सिर को संवार चुका है। प्रभु के आदेश से ही तुम यहां पधारे हो। मैं इस जीवन से थक चुका हूं। इन स्मृति चिह्नों तथा अमूल्य धरोहर को उचित स्थान, उचित संत और उचित रामभक्त को समर्पित करने की प्रतीक्षा में ही मैं समाधिस्थ रहता था। यह श्रीराम का दिव्य उपहार है। इस धरोहर तथा अमूल्य संपत्ति को लेकर तुम काशी जाओ। वहीं निवास करो। वहीं श्रीराम की आराधना करो। श्रीराम के जन्म से लेकर अंत तक की संपूर्ण घटनाएं साक्षात तुम्हारे मानसपटल पर अंकित हो जायेंगी। तुमसे तुम्हारे अपने राम मिल जायेंगे। तुम्हारे हाथों एक नयी रामायण लिखी जायेगी, तुम्हारी ही सरल लेखनी से रामलीला लिखी जायेगी जो जन-जन तक पहुंचेगी तथा रामलीला के नाम से विख्यात होगी।''
संत तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।

तुलसीदास महासंत के चरणों में गिर गये और साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आज्ञाकारी शिष्य के रूप में कुछ दिन उन महासंत की छाया में रहने की अनुमति प्राप्त करने के लिए करबद्ध स्वीकृति मांगी। महासंत की शिक्षा-दीक्षा ने मानो तुलसीदासजी के मन के नेत्र खोल दिये। ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, गुरु का आदेश पाकर वे काशी के लिए चल पड़े। साथ में राम, मन में राम, स्मृति में राम, राम ही राम।

1595 में तुलसीदासजी महासंत की आज्ञा के अनुसार काशी पहुंचे और अस्सीघाट पर रहने लगे। रात्रि में देखे गये स्वप्न, प्रात: उनको रामकथा लिखने की प्रेरणा देने लगे। रामचरितमानस का लेखन आरंभ हो गया। 1618-19 में यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गया। संत तुलसीदासजी दिव्य उपस्करों (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) को अपने साथ लेकर अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गये। काशी नरेशजी संत तुलसीदासजी से मिलकर प्रसन्नता और श्रद्धा से भावविभोर हो गये। अपने सिंहासन से उठकर उन्होंने तुलसीदासजी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया।

ramlila21621 ई. में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में संत तुलसीदासजी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन किया। उसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिए एक वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, पंचवटी की रूपरेखा बड़े मंच पर अंकित करवाकर रामलीला की भव्य प्रस्तुति करवायी। प्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगी। रामनगर की रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है। रामलीला का अंतिम दिन दशहरा का दिन होता है। इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है।

1626 ई. में महाकवि संत तुलसीदासजी ब्रह्मलीन हो गये। तुलसीदासजी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया है। आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिद्ध है। आज भी वह दिव्य उपस्कर (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैं। वर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल प्रयोग में लाये जाते हैं। तभी भरत मिलाप अद्वितीय माना जाता है। इस रामलीला को देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक रामनगर (वाराणसी) आते हैं।


2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

सांस्कृतिक परम्परा की बढ़िया जानकारी दी आपने......आभार

Shahroz ने कहा…

बहुत सुन्दर जानकारी ..आभार.