उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

विश्व नृत्य दिवस

आज विश्व नृत्य दिवस है. गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस की शुरुआत 29 अप्रैल 1982 से हुई। यूनेस्को के अंतरराष्ट्रीय थिएटर इंस्टिट्यूट की अंतरराष्ट्रीय डांस कमेटी ने 29 अप्रैल को नृत्य दिवस के रूप में स्थापित किया। एक महान रिफॉर्मर जीन जार्ज नावेरे के जन्म की स्मृति में यह दिन अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस को पूरे विश्व में मनाने का उद्देश्य जनसाधारण के बीच नृत्य की महत्ता का अलख जगाना है.आज इस विशिष्ट दिवस पर चर्चा करते हैं कि कैसे शास्त्रीय नृत्य से रोग भी भाग जाते हैं.

शास्त्रीय नृत्य से आप सभी वाकिफ होंगे। इसके बारे में सुनते ही जेहन में कत्थक करती किसी नृत्यांगना की तस्वीर उभर आती है। लेकिन क्या आपको इस बात का इल्म है कि यह शास्त्रीय नृत्य मात्र एक कला नहीं बल्कि दवा भी है। इस बात पर अपनी सहमति की मोहर लगाती हैं राष्ट्रीय स्तर की शास्त्रीय नृत्यांगना मनीषा महेश यादव। मुम्बई विश्वविद्यालय से नृत्य में विशारद की डिग्री हासिल कर मनीषा ने कई मंचों पर शास्त्रीय नृत्य का प्रदर्शन किया। अपनी काबिलियत के चलते उन्हें फिल्म ’दिल क्या करे’ में कोरियोग्राफी करने का भी मौका मिला। मुम्बई में मनीषा हर प्रकार के लोक और शास्त्रीय नृत्य की शिक्षा भी देती हैं। मनीषा यादव की मानें तो म्यूजिक थेरेपी जहाँ मानसिक समस्याओं को दूर करने में सक्षम है वहीं शास्त्रीय नृत्य शारीरिक समस्याओं को।

राष्ट्रीय स्तर के श्रंृगारमणि पुरस्कार से नवाजी जा चुकी मनीषा की यह बात उन्हीं के एक किस्से से साबित हो जाती है। वह बताती हैं कि-'मेरी एक छात्रा को दमा की शिकायत थी। सभी डाॅक्टरों ने उसे ज्यादा थकावट लाने वाले काम करने से मना कर दिया था। लेकिन वह फिर भी मुझसे कत्थक सीखने आती थी। और यह सीखते-सीखते उसे इस समस्या से निजात मिल गई।’ दरअसल बात यह है कि दमा के मरीजों को लम्बी साँस लेने में परेशानी होती है। लेकिन कत्थक के हर स्टेप को लम्बी साँस लेकर ही पूरा किया जा सकता है। कत्थक सीखते समय दमा के मरीजों को शुरूआत में तो कुछ दिक्कतें आती हैं लेकिन जब उन्हें लम्बी साँस खींचने का अभ्यास हो जाता है तो उनकी साँस फूलने की शिकायत भी दूर हो जाती है।

दमा ही नहीं कत्थक से तीव्र स्मरण शक्ति की समस्या को भी हल किया जा सकता है। बकौल मनीषा ’कत्थक की कुछ खास गिनतियाँ होती हैं जिन्हें याद रखना बेहद कठिन होता है। इसके लिए हम अपने छात्रों को कुछ विशेष तकनीकों से गिनतियाँ याद करवाते हैं।’ बस यही वे तकनीकें हैं जो कत्थक के स्टेप सीखने के साथ ही बच्चों को उनके किताबी पाठ याद करने में भी मददगार बन जाती हैं। वैसे अगर आपकी हड्डियाँ कमजोर हैं और इस वजह से आप कत्थक सीखने से हिचक रही हैं तो इस भ्रम को अपने मन से निकाल दीजिए। बकौल मनीषा कत्थक में वोंर्म-अप व्यायाम भी करवाए जाते हैं। जिससे हाथ-पाँव में लचीलापन आ जाता है। इन व्यायामों से हड्डियाँ भी मजबूत होती हैं।’

इन सबके अलावा कत्थक दिल के मरीजों के लिए भी एक सटीक दवा है। एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए मनीषा इस बात का पक्ष लेती हैं, ’मेरी डांस क्लास में एक 50 वर्ष की वृद्ध महिला कत्थक सीखने आती थीं। वह दिल की मरीज थीं। डाॅक्टरों के मुताबिक उनके शरीर में रक्त सही गति से नहीं दौड़ता था।’ लेकिन कत्थक सीखने के उनके शौक ने उनकी इस समस्या को जड़ से मिटा दिया। आज वह स्वस्थ जीवन बिता रही हैं।

तो वाकई आज की व्यस्त जिंदगी में यदि शास्त्रीय नृत्य कत्थक में स्वस्थ रहने का राज छुपा है, तो भारतीय नृत्य की इस अद्भुत धरोहर से नई पीढ़ी को परिचित कराने की जरुरत है जो पाश्चात्य संस्कृति में ही अपना भविष्य खोज रही है.

विश्व नृत्य दिवस की शुभकामनायें.....!!

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

पुस्तकों के प्रति आकर्षण जरुरी (विश्व पुस्तक दिवस पर)

पढना किसे अच्छा नहीं लगता। बचपन में स्कूल से आरंभ हुई पढाई जीवन के अंत तक चलती है. पर दुर्भाग्यवश आजकल पढ़ने की प्रवृत्ति लोगों में कम होती जा रही है. पुस्तकों से लोग दूर भाग रहे हैं. हर कुछ नेट पर ही खंगालना चाहते हैं. शोध बताते हैं कि इसके चलते लोगों की जिज्ञासु प्रवृत्ति और याद करने की क्षमता भी ख़त्म होती जा रही है. बच्चों के लिए तो यह विशेष समस्या है. पुस्तकें बच्चों में अध्ययन की प्रवृत्ति, जिज्ञासु प्रवृत्ति, सहेजकर रखने की प्रवृत्ति और संस्कार रोपित करती हैं. पुस्तकें न सिर्फ ज्ञान देती हैं, बल्कि कला-संस्कृति, लोकजीवन, सभ्यता के बारे में भी बताती हैं. नेट पर लगातार बैठने से लोगों की आँखों और मस्तिष्क पर भी बुरा असर पड़ रहा है. ऐसे में पुस्तकों के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा करना जरुरी हो गया है. इसके अलावा तमाम बच्चे गरीबी के चलते भी पुस्तकें नहीं पढ़ पाते, इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है. 'सभी के लिए शिक्षा कानून' को इसी दिशा में देखा जा रहा है।

आज 23 अप्रैल को विश्व पुस्तक दिवस है। यूनेसको ने 1995 में इस दिन को मनाने का निर्णय लिया, कालांतर में यह हर देश में व्यापक होता गया. लोगों में पुस्तक प्रेम को जागृत करने के लिए मनाये जाने वाले इस दिवस पर जहाँ स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई की आदत डालने के लिए सस्ते दामों पर पुस्तकें बाँटने जैसे अभियान चलाये जा रहे हैं, वहीँ स्कूलों या फिर सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शनियां लगाकर पुस्तक पढ़ने के प्रति लोगों को जागरूक किया जा रहा है. स्कूली बच्चों के अलावा उन लोगों को भी पढ़ाई के लिए जागरूक किया जाना जरुरी है जो किसी कारणवश अपनी पढ़ाई छोड़ चुके हैं। बच्चों के लिए विभिन्न जानकारियों व मनोरंजन से भरपूर पुस्तकों की प्रदर्शनी जैसे अभियान से उनमें पढ़ाई की संस्कृति विकसित की जा सकती है. पुस्तकालय इस सम्बन्ध में अहम् भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते उनका रख-रखाव सही ढंग से हो और स्तरीय पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं वहाँ उपलब्ध कराई जाएँ। वाकई आज पुस्तकों के प्रति ख़त्म हो रहे आकर्षण के प्रति गंभीर होकर सोचने और इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की जरुरत है. विश्व पुस्तक दिवस पर अपना एक बाल-गीत भी प्रस्तुत कर रहा हूँ-
प्यारी पुस्तक, न्यारी पुस्तक
ज्ञानदायिनी प्यारी पुस्तक
कला-संस्कृति, लोकजीवन की
कहती है कहानी पुस्तक।
अच्छी-अच्छी बात बताती
संस्कारों का पाठ पढ़ाती
मान और सम्मान बड़ों का
सुन्दर सीख सिखाती पुस्तक।
सीधी-सच्ची राह दिखाती
ज्ञान पथ पर है ले जाती
कर्म और कर्तव्य हमारे
सदगुण हमें सिखाती पुस्तक।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

विश्व पृथ्वी दिवस : प्रलय का इंतजार

आज की यह पोस्ट माँ पर, पर वो माँ जो हर किसी की है। जो सभी को बहुत कुछ देती है, पर कभी कुछ माँगती नहीं। पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उसका ही शोषण करने लगते हैं। जी हाँ, यह हमारी धरती माँ है। हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर धरती माँ की नहीं. यदि धरती ही ना रहे तो क्या होगा... कुछ नहीं। ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद हम नित उसी धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. हम जिसकी छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. सौभाग्य से आज विश्व पृथ्वी दिवस है. लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पृथ्वी दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने परिवेश को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.

आज आफिस के लिए निकला तो बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा आपको पता है आज विश्व पृथ्वी दिवस है। आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें पेड़-पौधों की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए। पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है। पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे.

अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं. आखिर हम बच्चों में धरती और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से धरा का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-माँ-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरिना चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ..क्या ये प्रलय नहीं है. गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा धरती माँ कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा !!

विश्व पृथ्वी दिवस : आज धरती माँ की सोचें

आज 22 अप्रैल को विश्व पृथ्वी दिवस है. वैसे आजकल हर दिन का फैशन है, पर पृथ्वी दिवस की महत्ता इसलिए बढ़ जाती है कि यह पृथ्वी और पर्यावरण के बारे में लोगों को जागरूक करता है. यदि पृथ्वी ही नहीं रहेगी तो फिर जीवन का अस्तित्व ही नहीं रहेगा. हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सुरक्षा को ललकार किया गया कोई भी कार्य समूची मानवता को खतरे में डाल सकता है. सर्वप्रथम पृथ्वी दिवस का विचार अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन के द्वारा 1970 में पर्यावरण शिक्षा के अभियान रूप में की गयी, पर धीरे-धीरे यह पूरे विश्व में प्रचारित हो गया. आज हम अपने आसपास प्रकृति को न सिर्फ नुकसान पहुंचा रहे हैं, बल्कि भावी पीढ़ियों से प्रकृति को दूर भी कर रहे हैं. ऐसे परिवेश में कल वास्तविक पार्क की बजाय हमें ई-पार्क देखने को मिले, तो कोई बड़ी बात नहीं.