उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

रविवार, 3 नवंबर 2013

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं


दीपावली पर्व पर आप सभी को शुभकामनाएँ। दीपावली दीये का त्यौहार है न कि पटाखों का। अत: दीपावली पर दीये जलाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखें, न कि पटाखों और आतिशबाजी द्वारा इसे प्रदूषित करें। 

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं। झिलमिलाते दीपों की आभा से प्रकाशित ये दीपोत्सव आपके जीवन में धन, धान्‍य, सुख और सम़द्वि  लेकर आये। दीप मल्लिका दीपावली हर व्यक्ति, प्राणी, परिवार, समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व के लिए सुख, शांति, सम़द्वि व धन वैभव दायक हो। इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

सांस्कृतिक परंपरा का पर्व : कुल्लू दशहरा

दशहरे की धूम तो देश भर में है, लेकिन कुछ जगह के दशहरा अपनी खास पहचान के लिए प्रसिद्ध हैं। ऐसी ही खास पहचान है कुल्लू के दशहरे की, जहां इस दौरान पर्यटक दूर-दूर से आते हैं और इस मौके का आनन्द उठाते हैं। विजय दशमी से शुरू होकर सप्ताह भर बाद तक मनाया जाने वाला यह त्योहार सम्पूर्ण कुल्लू घाटी को उत्सव के रंग से सराबोर कर देता है। इस अवसर पर लगने वाले ऐतिहासिक मेले में कुल्लू की प्राचीन परंपरा, समृद्ध इतिहास और गौरवपूर्ण लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम इस दौरान कुल्लू घाटी की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं।

अंतरराष्ट्रीय है चमककुल्लू दशहरा अब अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल कर चुका है। इसके प्रति उत्साह सिर्फ स्थानीय लोगों में ही नहीं, बल्कि विदेशियों में भी देखने को मिलता है। यही वजह है कि इस अवसर पर कुल्लू घाटी में विदेशी सैलानियों का जमावड़ा लग जाता है। यहां काफी संख्या में भारतीय पर्यटक तो आते ही हैं, इस दौरान यहां अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा और जर्मनी से भी काफी संख्या में पर्यटक आते हैं। दिलचस्प यह भी है कि विदेशी पर्यटक यहां के परिधान पहन कर मौके का भरपूर आनन्द उठाते हैं।

 होता है रामलीला का मंचनइस अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठान तो होते ही हैं, मैदानी इलाकों में रामलीला का भी मंचन किया जाता है। इस अवसर पर लोकनृत्य, लोकगीत और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा भगवान राम की स्तुति की जाती है। 

पारंपरिक कला शिल्प की छटा 
कुल्लू दशहरा के अवसर पर धालपुर मैदान में स्थानीय कला-शिल्प के स्टॉल्स लगाए जाते हैं। अगर आपको स्थानीय क्राफ्ट पसंद हैं तो यहां से शाल जैसा दिखने वाला पट्टू (कुल्लू-महिलाओं का परंपरागत परिधान) भी ले सकते हैं और कुल्लू टोपियां, मफलर आदि भी। 


निकलती हैं शानदार झांकियां
कुल्लू दशहरे की एक खासियत है कि यह विजय दशमी के दिन से आरम्भ होकर अगले सात दिनों तक मनाया जाता है। दशहरा मेले का शुभारंभ देवी हिडिम्बा द्वारा किया जाता है। कुल्लू घाटी में हिडिम्बा का प्राचीन मंदिर स्थित है। दशहरा मेले की शुरुआत घाटी में आकर्षक तरीके से सजाई गई रघुनाथ जी की पालकी (रथ) की झांकी निकाल कर की जाती है। राजा का सुसज्जित घोड़ा जुलूस की अगवानी करता है। अन्य ग्रामीण देवी-देवता इस रथ के पीछे चलते हैं। बाद में रघुनाथ जी की पालकी को धालपुर मैदान में लाया जाता है। इस दौरान गीत-संगीत की स्वर लहरियां पूरी घाटी में गूंजती रहती हैं। 


भव्य होता है समापन
उत्सव के सातों दिन लोकनृत्य, लोकगीत और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है। त्योहार का छठा दिन ‘मुहल्ला’ कहलाता है। इस दिन लोग देवताओं की मूर्तियों को कंधों पर रख कर नाचते हैं। अगले दिन रधुनाथ जी के दरबार में अपनी हाजिरी देने के बाद सभी देवता आज्ञा लेकर अपने-अपने मूल स्थानों को लौट जाते हैं। सातवें दिन ‘लंका दहन’ का आयोजन होता है। व्यास नदी के तट पर घास-फूस से बनी लंका को हर्षोल्लास के साथ जलाया जाता है। वैसे तो इस अवसर पर मिट्टी के रावण की प्रतिमा का सिर धड़ से अलग करने की परंपरा भी चली आ रही है, लेकिन अब कुल्लू दशहरे में भी रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने का चलन शुरू हो गया है। यानी आप इस मौके पर कुल्लू की खूबसूरत वादियों के साथ-साथ इस त्योहार को भी देख सकते हैं।


साभार : अशोक वशिष्ठ, हिन्दुस्तान 

बुधवार, 28 अगस्त 2013

'कृष्ण-जन्माष्टमी' पर्व की ढेरों बधाइयाँ


मानव जीवन सबसे सुंदर और सर्वोत्तम होता है। मानव जीवन की खुशियों का कुछ ऐसा जलवा है कि भगवान भी इस खुशी को महसूस करने समय-समय पर धरती पर आते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु ने भी समय-समय पर मानव रूप लेकर इस धरती के सुखों को भोगा है। भगवान विष्णु का ही एक रूप कृष्ण जी का भी है जिन्हें लीलाधर और लीलाओं का देवता माना जाता है।

कृष्ण को लोग रास रसिया, लीलाधर, देवकी नंदन, गिरिधर जैसे हजारों नाम से जानते हैं। भगवान कृष्‍ण द्वारा बताई गई गीता को हिंदू धर्म के सबसे बड़े ग्रंथ और पथ प्रदर्शक के रूप में माना जाता है। कृष्ण जन्माष्टमी कृष्ण जी के ही जन्मदिवस के रूप में प्रसिद्ध है।

मान्यता है कि द्वापर युग के अंतिम चरण में भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इसी कारण शास्त्रों में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी के दिन अर्द्धरात्रि में श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी मनाने का उल्लेख मिलता है। पुराणों में इस दिन व्रत रखने को बेहद अहम बताया गया है। इस साल जन्माष्टमी 28 अगस्त यानी आज है।


‘जन्‍माष्‍टमी’ के त्‍यौहार में भगवान विष्‍णु की, श्री कृष्‍ण के रूप में, उनकी जयन्‍ती के अवसर पर प्रार्थना की जाती है। हिन्‍दुओं का यह त्‍यौहार श्रावण (जुलाई-अगस्‍त) के कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी के दिन भारत में मनाया जाता है। हिन्‍दु पौराणिक कथा के अनुसार कृष्‍ण का जन्‍म, मथुरा के असुर राजा कंस, जो उसकी सदाचारी माता का भाई था, का अंत करने के लिए हुआ था।


श्रीकृष्ण जी का जन्म मात्र एक पूजा अर्चना का विषय नहीं बल्कि एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है।  इस उत्सव में भगवान के श्रीविग्रह पर कपूर, हल्दी, दही, घी, तेल, केसर तथा जल आदि चढ़ाने के बाद लोग बडे़ हर्षोल्लास के साथ इन वस्तुओं का परस्पर विलेपन और सेवन करते हैं।

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर पुरूष व औरतें उपवास व प्रार्थना करते हैं। मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है व प्रकाशित किया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के वृन्‍दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर  रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्‍मरण करने के लिए रास लीला की जाती है। इस त्‍यौहार को कृष्‍णाष्‍टमी अथवा गोकुलाष्‍टमी के नाम से भी जाना जाता है। बाल कृष्‍ण की मूर्ति को आधी रात के समय स्‍नान कराया जाता है तथा इसे हिन्‍डौले में रखा जाता है। पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं व नृत्‍य किया जाता है।


महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान, कृष्‍ण के द्वारा बचपन में लटके हुए छींकों (मिट्टी की मटकियों), जो कि उसकी पहुंच से दूर होती थीं, से दही व मक्‍खन चुराने की कोशिशों करने का उल्‍लासपूर्ण अभिनय किया जाता है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ डालते हैं।

.....आप सभी को 'कृष्ण-जन्माष्टमी' पर्व की ढेरों बधाइयाँ !!

रविवार, 20 जनवरी 2013

पृथ्वी पर सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव है कुम्भ मेला


कुम्भ मेला पृथ्वी पर सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव है । यह प्रत्येक १२वें वर्ष पवित्र गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम तट पर आयोजित किया जाता है । मेला प्रत्येक तीन वर्षो के बाद नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन, और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है । इलाहाबाद में संगम के तट पर होने वाला आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है । इस मेले में लाखो की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है । ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है । संगम कुम्भ और अर्धकुम्भ के दौरान नदी के किनारे विशाल शिविर लगाये जाते हैं ।
कुम्भ महोत्सव पौष मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होता है। कुम्भ महोत्सव प्रत्येक चौथे वर्ष नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन, और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है। प्रयाग कुम्भ विशेष महत्व रखता है। प्रयाग कुम्भ का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह १२ वर्षो के बाद गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर आयोजित किया जाता है। हरिद्वार में कुम्भ गंगा के तट पर और नासिक में गोदावरी के तट पर आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर नदियों के किनारे भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते है।
 
प्रयाग कुम्भ अन्य कुम्भों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रकाश की ओर ले जाता है ।यह ऐसा स्थान है जहाँ बुद्धिमत्ता का प्रतीक सूर्य का उदय होता है। इस स्थान को ब्रह्माण्ड का उद्गम और पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रम्हाजी ने यही अश्वमेघ यज्ञ किया था। दश्व्मेघ घाट और ब्रम्हेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप अभी भी यहाँ मौजूद है। इस यज्ञ के कारण भी कुम्भ का विशेष महत्व है।
 
कुम्भ और प्रयाग एक दूसरे के पर्यायवाची है। कुम्भ का शाब्दिक अर्थ कलश होता है। कुम्भ का पर्याय पवित्र कलश से होता है। इस कलश का हिन्दू सभ्यता में विशेष महत्व है ।कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रूद्र, आधार को ब्रम्हा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है। इस तरह कुम्भ का अर्थ पूर्णतः औचित्य पूर्ण है। वास्तव में कुम्भ हमारी सभ्यता का संगम है। यह आत्म जाग्रति का प्रतीक है। यह मानवता का अनंत प्रवाह है। यह प्रकृति और मानवता का संगम है ।कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। कुम्भ मानव-जाति को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार का एहसास कराता है। नदी जीवन रूपी जल के अनंत प्रवाह को दर्शाती है। मानव शरीर पञ्चतत्वों से निर्मित है यह तत्व हैं-अग्नि, वायु, जल, प्रथ्वी और आकाश ।संत कबीर ने इस तथ्य को बड़े सुन्दर तरीके से बताया है। हिमालय को देवो का निवास स्थान माना जाता है। गंगा का उद्गम हिमालय से ही हुआ है। गंगा जंगलों, पर्वतों, और समतल मैदानों से होते हुए अंतत: सागर में मिल जाती है। यमुना भी पवित्र मानी जाती है। यमुना को त्रिपथगा, शिवपुरी आदि नामों से भी जाना जाता है। गंगा ने सूर्यवंशी राजा सागर के पुत्रों को श्राप से मुक्त किया था। गंगा के जल को अमृत माना जाता है।
 
पहले कुम्भ को एक अवसर कहा जाता था लेकिन समय बीतने के साथ इसने एक महोत्सव का आकार ले लिया है । यह एक ऐसा धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है, जो पूरी दुनिया पर एक छाप छोड़ देता है, इस तरह का पर्व जो एक धर्म और संस्कृति के बारे में सोचता है. इस तरह का एक पर्व जिसकी संस्कृति विष्णुपदी गंगा है। पहले, इस पर्व का आकार छोटा था, लेकिन अब १२वीं सदी से यह पर्व सबसे बड़े पर्व में विकसित हो गया है। इसका फैलाव परेड ग्राउंड से त्रिवेणी बांध तक, दारागंज से नागवासुकी की सीमा तक, झूंसी (प्रतिष्ठान्पुरी ) से (अलर्कपुरी ) अरैल तक फैला हुआ है ।
 
कुम्भ या अर्धकुम्भ कोई साधारण पर्व नहीं है, यह ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का पर्व है। इस पर्व में धार्मिक माहौल बड़ा ही अनुपम होता है । आप जिस भी शिविर में जायेंगे यज्ञ (धार्मिक बलिदान) के धुएं के बीच में वेद मंत्रों की आवाज सुनाई देती है । व्याख्या, पौराणिक महाकाव्य, प्रार्थना, संतों और साधु के उपदेश पर आधारित नृत्य महमोहक होते हैं । अखाड़ों की पारंपरिक जुलूस, हाथी, घोड़े, संगीत वाद्ययंत्र के बीच नागासंतों के शाही स्नान में तलवार (शाहीस्नान) , घोड़-दौड़ लाखों भक्तों को आकर्षित करती है। इस पर्व में विभिन्न धर्मों के धर्म-मुखिया हिस्सा लेते हैं । यह पर्व प्रयाग के सम्मान और गरिमा का पर्व है । यह लाखों कलाकारों के अत्यंत भक्ति का पर्व है । गरीबों और असहायों के भरण-पोषण की व्यवस्था यहाँ उचित ढंग से लिए जाती है । गंगा इस पर्व में सभी की माँ है और सभी उसके बेटे हैं।
 
" गंगेतवदर्शनातमुक्ति" इस भावना के वशीभूत होकर ही यहाँ इतनी भारी भीड़ एकत्रित होती है और इस पवित्र पर्व का आयोजन प्रयाग की पावन भूमि पर होता है । यह पर्व ईंटों और पत्थरों के घरों में नहीं बल्कि यह संगम की ठंड रेत पर आयोजित किया जाता है ।यह पर्व टैंटों के घरों के साथ मनाया जाता है। यह मानव भक्ति की एक कठिन परीक्षा है ।लोग पवित्र मन और पुण्य की भावना के साथ आते हैं. पाप का स्वतः ही अंत हो जाता है ।यहाँ गायदान, सोने का दान, गुप्तदान / भेंट, पितृ के लिए दान सहित सभी दान का प्रावधान है। यह पर्व पवित्रता का पर्व है ।विभिन्न धर्म सम्प्रदाय के साधु-संत,कलाकार इसमें सम्मिलित होते हैं ।यह स्थान एक छोटे भारत का रूप ले लेता है ।विभिन्न तरह की भाषा, वेश-भूषा, खान-पान इस पर्व पर एक साथ देखें जा सकतें हैं ।इस पर्व पर भारी संख्या में लोग बिना किसी आमंत्रण के पहुंचते हैं । साभार