उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

अनुभव और संकल्प से रचें नया वर्ष-2016

नए साल की शुरूआत पर कुछ नया सोचें, नया लिखें, नया करें, नया कहें और नया रचें। प्रश्न है नया हो क्या? क्या कलेण्डर बदल देना ही नयापन है? पर मूल में तो सबकुछ कल भी वही था, आज भी वही है और कल भी वही होगा। जीवन का भी यही अन्दाज है-जो था, जो है, जो होगा, बस, सबकी संयोजना, संकल्पना, व्यवस्था के बदलाव का ही एक नाम है- नया जीवन, नया वर्ष और नयी शुरूआत। बीते कल के अनुभव और आज के संकल्प से भविष्य को रचें। तभी सार्थक होगा नए वर्ष की अगवानी का यह पल-यह अवसर।

 नए वर्ष का स्वागत हम इस सोच और संकल्प के साथ करें कि हमें कुछ नया करना है, नया बनना है, नये पदचिह्न स्थापित करने हैं। बीते वर्ष की कमियों पर नजर रखते हुए उन्हें दोहराने की भूल न करने का संकल्प लेना है। सबसे जरूरी है स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार। दुनिया में सबसे बड़ा आश्चर्य है अपने आपको नहीं जानना। आदमी अपने आपको नहीं जानता, अपने आपको नहीं देखता, यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। यह प्रश्न महाभारतकाल में भी पूछा गया था-‘‘किमाश्चर्यमतः परम्।’’ दूसरों को जानने वाला आदमी अपने आपको नहीं जानता, दूसरों को देखने वाला स्वयं को नहीं देखता, क्या यह कम आश्चर्य है? प्रसिद्ध लोकोक्ति है कि अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। हजारों-हजारों मीलों की दूरी पर होने वाली घटनाओं और परिवर्तनों को जानने वाला आदमी अपने भीतर घटित होने वाली घटनाओं और परिवर्तनों को नहीं जानता, क्या यह कम आश्चर्य है? बहुत बड़ा आश्चर्य है। इसी सन्दर्भ में महान् दार्शनिक गेटे का कथन है कि यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्न नहीं हुई है तो तुम दूसरों के हृदय को कदापि प्रसन्न नहीं कर सकते।

नय वर्ष की अगवानी में सबसे कठिन काम है-दिशा-परिवर्तन। दिशा को बदलना बड़ा काम हैं आदमी दिशा नहीं बदलता, दिशा वही की वही बनी रहती है। आदमी एक ही दिशा में चलते-चलते थक जाता है, ऊब जाता है। किन्तु दिशा बदले बिना परिवर्तन घटित नहीं होता। एमर्सन का कहा हुआ है वे विजय कर सकते हैं, जिन्हें विश्वास है कि वे कर सकते हैं। जीवन की दिशा को बदलना बड़ा काम है। जीवन की दिशा वे ही बदल सकते है जो बदलने की चाहत रखते हैं। यदि जीवन की दिशा बदल जाती है तो सब कुछ बदल जाता है। जीवन की दिशा बदलती है अपने आपको जानने और देखने से। महान् क्रांतिकारी श्री सुभाषचन्द बोस का मार्मिक कथन है कि जिस व्यक्ति के हृदय में संगीत का स्पंदन नहीं है, वह चिंतन और कर्म द्वारा कदापि महान नहीं बन सकता।

स्वयं से स्वयं के संवाद न होने के कारण ही बुराइयों का चक्र चलता रहता है। वह कभी नहीं रुकता। आदमी बुराई करता है, पाप का आचरण करता है। प्रश्न होता है, वह पाप का आचरण क्यों करता है? श्रीकृष्ण ने इसका जो उत्तर दिया वह आज भी उतना ही मूल्यवान है, जितना वह उस समय मूल्यवान था। उन्होंने कहा-आदमी को पाप में धकेलने वाले वह शत्रु हैं-काम और क्रोध। क्रोध ज्ञान पर पर्दा डालता है। ऐसी माया पैदा करता है कि आदमी समझ ही नहीं पाता कि वह पाप कर रहा है, आदमी में गहरी मूच्र्छा और मूढ़ता पैदा हो जाती है और तब वह जानता हुआ भी नहीं जानता, देखता हुआ भी नहीं देखता। उसमें बुरे और भले का विवेक ही समाप्त हो जाता है और तब वह न करने योग्य कार्य भी कर लेता है। शेख सादी भी हमें स्वयं से स्वयं या स्वयं को परमात्मा से जोड़ने की सलाह देते हैं कि परमेश्वर देखता है और छुपाता है। पड़ोसी अपनी आंखों से देखता नहीं, तो भी चिल्लाता है। 

अक्सर दुःशासन, दुर्योधन, जरासंध, कंस का योग मिले तब भी हंसना और युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, कृष्ण का योग मिले तब भी मुस्कुराना। यानी सुख-दुख में सम रहना। जीवन में आने वाली हर समस्या की चट्टानों को ठोकरों से हटाते चले, हवा से उड़ाते चले, एक दिन सफलता के शिखर पर जरूर प्रस्थित होंगे। कष्टों से क्या डरना है? जो जीवन को एक चुनौती मानते हैं वे हर मोर्चें में कामयाबी पाते हैं, सफलता उनके चरण चूमेती है। नये वर्ष में कुछ ऐसी ही सोच के साथ आगे बढ़ने के लिये संकल्पित हो।

आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार-सहन करो, सफल बनो। श्रम करो, सफल बनो। सेवा करो, सफल बनो। संयम करो, सफल बनो। स्वभाव में रमण करो, सफल बनो। गांधीजी के अनुसार-बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो। सकारात्मक सोच जीवन की सफलता का द्वार है। जेम्स एलन के कथानुसार सुविचारों से सुफल उपजते हैं और कुविचारों से कुफल। मेरी दृष्टि में अच्छा सोचो, अच्छा देखो, अच्छा बोलो, अच्छा सुनो और अच्छा करो, सबके प्रति अच्छे भाव रखो, सफलता जरूर मिलेगी। सेवा की मिसाल मदर टेरेसा ने कहा भी  है कि मीठे बोल संक्षिप्त और बोलने में आसान हो सकते हैं, लेकिन उन की गूँज सचमुच अनंत होती है।

जीवन की सफलता के लिए जरूरी है-मस्तिष्क में आइस फैक्टरी और जुबां पर शूगर फैक्टरी लगे। जो धैर्य, बुद्धि, संकल्प, श्रम की शक्ति से संपन्न होता है, वही सफलता के शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। प्लूटार्क के अनुसार क्रोध बुद्धि को घर से बाहर निकाल देता है और दरवाजे पर चटकनी लगा देता है। जीवन की सार्थकता सदा मुस्कुराते रहने में ही है और इसी से नयावर्ष सराबोर बने, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। 

हम स्वयं अपने भाग्य के कत्र्ता-धर्ता हैं, सुख-दुःख के कर्ता-धर्ता हैं और हम स्वयं अपने नियंता- निर्माता है। कोई दूसरा कत्र्ता नहीं है। कोई दूसरा नियंता नहीं है। भगवान महावीर के अनुसार हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता है। हमारे भाग्य का विधाता कोई दूसरा नहीं है। हमारे भाग्य की बागडोर हमारे हीे हाथ में है। दूसरा कोई उसे थामे हुए नहीं है। न किसी के आगे गिडगिडाओ और न किसी पर दोषारोपण करो। कभी भी यह न सोचो कि अमुक आदमी ने हमारे भाग्य को बिगाड़ दिया। हम अपनी नेक-नियति से अपने भाग्य के बुरे-से-बुरे क्षणों को सुखद बना सकते है। जरूरी है अपने आचरण को शुद्ध और पवित्र बनाने की। हमें जीवन को नये आयाम देने और कुछ हटकर करने के लिये अपना नजरिया बदलना होगा। अंधेेरों से लड़ने के लिये गली और मौहल्ले के हर मुहाने पर नन्हें-नन्हें दीपक जलाने होंगे। साहसी फैसला लेने के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी होगी। कोरे पत्तों को नहीं जड़ों को सींचने से समस्या का समाधान होगा।
जीवन को सफल बनाने के लिये यह आवश्यक है कि आप स्थिति का सही विश्लेषण करके, उसके संदर्भ में सही पृष्ठभूमि बनाएं। हम जो भी महत्वपूर्ण निर्णय करने जा रहे हैं, यदि उनके संदर्भ में हमें पृष्ठभूमि की सही जानकारी नहीं है तो हमारे कार्य करने की दिशा गलत हो सकती है। एक सफल जीवन का निर्वाह करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने भीतर ऐसे गुणों का विकास करें, जिनके द्वारा सभी को एक साथ लेकर चलने की कला में दक्षता प्राप्त कर सके। इसके लिए सबसे पहले हमें स्वयं को तैयार करना होगा। जब तक हम दूसरों का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक दूसरे भी हमारे प्रति आदर का भाव नहीं रखेंगे। मानवीय गुणों के विकास के बिना, आप अपने आपको समाज में प्रतिष्ठापित नहीं कर सकते। समाज में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसके विरोधी न हों। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम अपने कार्यों के द्वारा समर्थक अधिक बना रहे हैं या विरोधी।

जिन्दगी को एक ढर्रे में नहीं, बल्कि स्वतंत्र पहचान के साथ जीना चाहिए। जब तक जिंदगी है, जिंदादिली के साथ जीना जरूरी है। बिना उत्साह के जिंदगी मौत से पहले मर जाने के समान है। उत्साह और इच्छा व्यक्ति को साधारण से असाधारण की तरफ ले जाती है। जिस तरह सिर्फ एक डिग्री के फर्क से पानी भाप बन जाता है और भाप बड़े-से-बड़े इंजन को खींच सकती है, उसी तरह उत्साह हमारी जिंदगी के लिए काम करता है। इसी उत्साह से व्यक्ति को सकारात्मक जीवन-दृष्टि प्राप्त होती है। 

एक बुद्धिमान व्यक्ति अपने गांव के बाहर बैठा हुआ था। एक यात्री उधर से गुजरा और उसने उस व्यक्ति से पूछा- ‘इस गांव में किस तरह के लोग रहते हैं, क्योंकि मैं अपना गांव छोड़कर किसी और गांव में बसने की सोच रहा हूं।’ तब उस बुद्धिमान व्यक्ति ने पूछा-‘तुम जिस गांव को छोड़ना चाहते हो, उस गांव में कैसे लोग रहते हैं?’ उस आदमी ने कहा-‘वे स्वार्थी, निर्दयी और रूखे हैं।’ बुद्धिमान व्यक्ति ने जवाब दिया-‘इस गांव में भी ऐसे ही लोग रहते हैं।’

कुछ समय बाद एक दूसरा यात्री वहां आया और उस बुद्धिमान व्यक्ति से वही सवाल पूछा। बुद्धिमान व्यक्ति ने उससे भी पूछा-‘तुम जिस गांव को छोड़ना चाहते हो, उसमें कैसे लोग रहते हैं?’ उस यात्री ने जवाब दिया-‘वहां लोग विनम्र, दयालु और एक-दूसरे की मदद करने वाले हैं।’ तब बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा-‘इस गांव में भी तुम्हें ऐसे ही लोग मिलेंगे।’

यह कहानी इस बात की प्रेरणा देती है कि जैसी हमारी जीवन दृष्टि होगी, दूसरे लोग भी हमें वैसे ही दिखाई देंगे। यदि हम अपनी प्रवृत्ति में सकारात्मक जीवन दृष्टि विकसित करें तो हमें दूसरों में खूबियां अधिक दिखाई देने लगेंगी। यदि हमारे लिए नकारात्मक जीवन दृष्टि विकसित होने लगे, तो हमें दूसरों में खामियां अधिक नजर आने लगेंगी।

इसलिये एक नये एवं आदर्श जीवन की ओर अग्रसर होने वाले लोगों के लिये महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न करे। प्रमाद का अर्थ है-नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनांे से पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। ‘मैं’ का संवेदन भी प्रमाद है जो दुख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिये से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। इसलिए मनुष्य की परिस्थितियां बदलें, उससे पहले उसकी प्रकृति बदलनी जरूरी है। बिना आदतन संस्कारों के बदले न सुख संभव है, न साधना और न साध्य।हम कोशिश करें कि ‘जो आज तक नहीं हुआ वह आगे कभी नहीं होगा’ इस बूढ़े तर्क से बचकर नया प्रण जगायें। बिना किसी को मिटाये निर्माण की नई रेखाएं खींचें। यही साहसी सफर शक्ति, समय और श्रम को सार्थकता देगा। 


 (ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुंज  अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92