उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

विश्व की प्रथम रामलीला

महाकवि तुलसीदासजी सांसारिक बंधन से विरक्त होकर वैराग्य धारणकर रामधुन में लीन धार्मिक तीर्थस्थलों का भ्रमण करने ramlilaनिकल पड़े। पूजा पाठ, ध्यान - धर्म तथा आराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए 1593 में वे अयोध्या पहुंच गये। प्रतिदिन भोर में ही सरजू तट पर पहुंचना, राम का ध्यान लगाना, जप - तप करना इत्यादि रामभक्त तुलसीदासजी की दिनचर्या थी।

उसी तट पर एक तपस्वी महासंत समाधिस्थ रहते थे। तुलसीदासजी प्रतिदिन उस समाधिस्थ संत को दूर से ही साष्टांग दंडवत कर अभिवादन करते थे। संत के प्रति श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत अपने मन में उनसे साक्षात्कार करने, आशीर्वाद लेने और ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिये तुलसीदासजी वापस चले जाया करते थे। एक दिन वह शुभ घड़ी आ ही गयी, जब संत समाधि से बाहर आये। उसी समय तुलसीदासजी ने साष्टांग दंडवत किया। तपस्वी संत ने तुलसीदास को देखकर मन ही मन पहचान लिया कि प्रभु ने सही व्यक्ति को मेरे पास भेज दिया है। तपस्वी संत ने तुलसीदास को अपने हाथों उठाया, आशीर्वाद दिया और संकेत किया कि मेरे साथ आओ। वे तुलसीदास को अपने साथ लेकर अपनी कुटिया में पहुंचे। उस कुटिया में राम की मूर्ति के अलावा मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को फूलों से सजा कर रखा हुआ था। तपस्वी संत ने तुलसीदास से कहा कि ये मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल सभी कुछ तुमको सौंपता हूं। तुम वास्तव में प्रभु श्रीराम के उपासक हो इसीलिए प्रभु राम ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। इस मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को कोई सामान्य वस्तु न समझना, यह सभी प्रभु राम के स्मृति चिह्न हैं। यह धनुष-बाण कभी प्रभु राम के करकमलों में रह चुका है। इन खड़ाऊं और कमंडल को प्रभु राम के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त है। यह मुकुट श्रीराम के सिर को संवार चुका है। प्रभु के आदेश से ही तुम यहां पधारे हो। मैं इस जीवन से थक चुका हूं। इन स्मृति चिह्नों तथा अमूल्य धरोहर को उचित स्थान, उचित संत और उचित रामभक्त को समर्पित करने की प्रतीक्षा में ही मैं समाधिस्थ रहता था। यह श्रीराम का दिव्य उपहार है। इस धरोहर तथा अमूल्य संपत्ति को लेकर तुम काशी जाओ। वहीं निवास करो। वहीं श्रीराम की आराधना करो। श्रीराम के जन्म से लेकर अंत तक की संपूर्ण घटनाएं साक्षात तुम्हारे मानसपटल पर अंकित हो जायेंगी। तुमसे तुम्हारे अपने राम मिल जायेंगे। तुम्हारे हाथों एक नयी रामायण लिखी जायेगी, तुम्हारी ही सरल लेखनी से रामलीला लिखी जायेगी जो जन-जन तक पहुंचेगी तथा रामलीला के नाम से विख्यात होगी।''
संत तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।

तुलसीदास महासंत के चरणों में गिर गये और साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आज्ञाकारी शिष्य के रूप में कुछ दिन उन महासंत की छाया में रहने की अनुमति प्राप्त करने के लिए करबद्ध स्वीकृति मांगी। महासंत की शिक्षा-दीक्षा ने मानो तुलसीदासजी के मन के नेत्र खोल दिये। ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, गुरु का आदेश पाकर वे काशी के लिए चल पड़े। साथ में राम, मन में राम, स्मृति में राम, राम ही राम।

1595 में तुलसीदासजी महासंत की आज्ञा के अनुसार काशी पहुंचे और अस्सीघाट पर रहने लगे। रात्रि में देखे गये स्वप्न, प्रात: उनको रामकथा लिखने की प्रेरणा देने लगे। रामचरितमानस का लेखन आरंभ हो गया। 1618-19 में यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गया। संत तुलसीदासजी दिव्य उपस्करों (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) को अपने साथ लेकर अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गये। काशी नरेशजी संत तुलसीदासजी से मिलकर प्रसन्नता और श्रद्धा से भावविभोर हो गये। अपने सिंहासन से उठकर उन्होंने तुलसीदासजी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया।

ramlila21621 ई. में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में संत तुलसीदासजी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन किया। उसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिए एक वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, पंचवटी की रूपरेखा बड़े मंच पर अंकित करवाकर रामलीला की भव्य प्रस्तुति करवायी। प्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगी। रामनगर की रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है। रामलीला का अंतिम दिन दशहरा का दिन होता है। इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है।

1626 ई. में महाकवि संत तुलसीदासजी ब्रह्मलीन हो गये। तुलसीदासजी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया है। आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिद्ध है। आज भी वह दिव्य उपस्कर (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैं। वर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल प्रयोग में लाये जाते हैं। तभी भरत मिलाप अद्वितीय माना जाता है। इस रामलीला को देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक रामनगर (वाराणसी) आते हैं।


मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

नारी-शक्ति के गरिमामय स्थान को दर्शाता : नवरात्र पर्व


नवरात्र हिन्दू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार माता भगवती की आराधना का श्रेष्ठ समय होता है। भारत में नवरात्र का पर्व, एक ऐसा पर्व है जो हमारी संस्कृति में महिलाओं के गरिमामय स्थान को दर्शाता है। वर्ष के चार नवरात्रों में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ की शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन के होते हैं, परंतु प्रसिद्धि में चैत्र और आश्विन के नवरात्र ही मुख्य माने जाते हैं। इनमें भी देवीभक्त आश्विन के नवरात्र अधिक करते हैं। इनको यथाक्रम वासन्ती और शारदीय नवरात्र भी कहते हैं। इनका आरम्भ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से होता है। अतः यह प्रतिपदा ’सम्मुखी’ शुभ होती है।
शारदीय नवरात्र
शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से शुरू होता है। आश्विन मास में आने वाले नवरात्र का अधिक महत्त्व माना गया है। इसी नवरात्र में जगह-जगह गरबों की धूम रहती है।
चैत्र या वासन्ती नवरात्र
चैत्र या वासन्ती नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से होता है। चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। वैसे दोनों ही नवरात्र मनाए जाते हैं। फिर भी इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते हैं। आज के भागमभाग के युग में अधिकाँश लोग अपने कुल देवी-देवताओं को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग समयाभाव के कारण भी पूजा-पाठ में कम ध्यान दे पाते हैं। जबकि इस ओर ध्यान देकर आने वाली अनजान मुसीबतों से बचा जा सकता है। ये कोई अन्धविश्वास नहीं बल्कि शाश्वत सत्य है।
नियम और मान्यताएँ
नवरात्र में देवी माँ के व्रत रखे जाते हैं। स्थान–स्थान पर देवी माँ की मूर्तियाँ बनाकर उनकी विशेष पूजा की जाती है। घरों में भी अनेक स्थानों पर कलश स्थापना कर दुर्गा सप्तशती पाठ आदि होते हैं। नरीसेमरी में देवी माँ की जोत के लिए श्रृद्धालु आते हैं और पूरे नवरात्र के दिनों में भारी मेला रहता है। शारदीय नवरात्र आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक यह व्रत किए जाते हैं। भगवती के नौ प्रमुख रूप (अवतार) हैं तथा प्रत्येक बार 9-9 दिन ही ये विशिष्ट पूजाएं की जाती हैं। इस काल को नवरात्र कहा जाता है। वर्ष में दो बार भगवती भवानी की विशेष पूजा की जाती है। इनमें एक नवरात्र तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक होते हैं और दूसरे श्राद्धपक्ष के दूसरे दिन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक। आश्विन मास के इन नवरात्रों को 'शारदीय नवरात्र' कहा जाता है क्योंकि इस समय शरद ऋतु होती है। इस व्रत में नौ दिन तक भगवती दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ तथा एक समय भोजन का व्रत धारण किया जाता है। प्रतिपदा के दिन प्रात: स्नानादि करके संकल्प करें तथा स्वयं या पण्डित के द्वारा मिट्टी की वेदी बनाकर जौ बोने चाहिए। उसी पर घट स्थापना करें। फिर घट के ऊपर कुलदेवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन करें तथा 'दुर्गा सप्तशती' का पाठ कराएं। पाठ-पूजन के समय अखण्ड दीप जलता रहना चाहिए। वैष्णव लोग राम की मूर्ति स्थापित कर रामायण का पाठ करते हैं। दुर्गा अष्टमी तथा नवमी को भगवती दुर्गा देवी की पूर्ण आहुति दी जाती है। नैवेद्य, चना, हलवा, खीर आदि से भोग लगाकर कन्या तथा छोटे बच्चों को भोजन कराना चाहिए। नवरात्र ही शक्ति पूजा का समय है, इसलिए नवरात्र में इन शक्तियों की पूजा करनी चाहिए।

पुराणों में नवरात्र

मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई, इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। कलश स्थापना, देवी दुर्गा की स्तुति, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध – यह नौ दिनों तक चलने वाले साधना पर्व नवरात्र का चित्रण है। हमारी संस्कृति में नवरात्र पर्व की साधना का विशेष महत्त्व है। नवरात्र में ईश-साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। आश्विन माह की नवरात्र में रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दौरान प्रत्येक इंसान एक नए उत्साह और उमंग से भरा दिखाई पड़ता है। वैसे तो ईश्वर का आशीर्वाद हम पर सदा ही बना रहता है, किन्तु कुछ विशेष अवसरों पर उनके प्रेम, कृपा का लाभ हमें अधिक मिलता है। पावन पर्व नवरात्र में देवी दुर्गा की कृपा, सृष्टि की सभी रचनाओं पर समान रूप से बरसती है। इसके परिणामस्वरूप ही मनुष्यों को लोक मंगल के क्रिया-कलापों में आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
नवरात्र या नवरात्रि
संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुद्ध है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है।
नौ दिन या रात
अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है। यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है। इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्त्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।
शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
नौ दिन यानि हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा यानि पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं-
इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीज़ों से भी सम्बंध है, जिन्हें नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है-
  1. कुट्टू (शैलान्न)
  2. चौलाई (चंद्रघंटा)
  3. पेठा (कूष्माण्डा)
  4. श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
  5. हरी तरकारी (कात्यायनी)
  6. काली मिर्चतुलसी (कालरात्रि)
  7. साबूदाना (महागौरी)
  8. आंवला (सिद्धीदात्री)
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।

नवरात्र कथा

पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में दुर्गम नामक राक्षस ने कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। उनसे वरदान लेने के बाद उसने चारों वेदपुराणों को कब्जे में लेकर कहीं छिपा दिया। जिस कारण पूरे संसार में वैदिक कर्म बंद हो गया। इस वजह से चारों ओर घोर अकाल पड़ गया। पेड़-पौधे व नदी-नाले सूखने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। जीव जंतु मरने लगे। सृष्टि का विनाश होने लगा। सृष्टि को बचाने के लिए देवताओं ने व्रत रखकर नौ दिन तक माँ जगदंबा की आराधना की और माता से सृष्टि को बचाने की विनती की। तब माँ भगवती व असुर दुर्गम के बीच घमासान युद्ध हुआ। माँ भगवती ने दुर्गम का वध कर देवताओं को निर्भय कर दिया। तभी से नवदुर्गा तथा नव व्रत का शुभारंभ हुआ।

ध्यान मंत्र

वंदे वांच्छितलाभायाचंद्रार्धकृतशेखराम्
वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्॥
पूणेंदुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा
पट्टांबरपरिधानांरत्नकिरीटांनानालंकारभूषिता॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांतकपोलांतुंग कुचाम्
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीक्षीणमध्यांनितंबनीम्॥

स्तोत्र मंत्र

प्रथम दुर्गा त्वहिभवसागर तारणीम्
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
त्रिलोकजननींत्वंहिपरमानंद प्रदीयनाम्
सौभाग्यारोग्यदायनीशैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन
भुक्ति, मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन
भुक्ति, मुक्ति दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥

कवच मंत्र

ओमकार:में शिर: पातुमूलाधार निवासिनी
हींकार,पातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी॥
श्रीकार:पातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी
हूंकार:पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत॥
फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा.

अष्टमी या नवमी

यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है। भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार, बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए। वैसे अष्टमी, नवमी और दशहरे के चार दिन बाद की चौदस, इन तीनों की महत्ता 'दुर्गासप्तशती' में कही गई है।

कन्या पूजन

अष्टमी और नवमी दोनों ही दिन कन्या पूजन और लोंगड़ा पूजन किया जा सकता है। अतः श्रद्धापूर्वक कन्या पूजन करना चाहिये।
  1. सर्वप्रथम माँ जगदम्बा के सभी नौ स्वरूपों का स्मरण करते हुए घर में प्रवेश करते ही कन्याओं के पाँव धोएं।
  2. इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर बिंदी लगाएं।
  3. उनकी थाली में हलवा-पूरी और चने परोसे।
  4. अब अपनी पूजा की थाली जिसमें दो पूरी और हलवा-चने रखे हुए हैं, के चारों ओर हलवा और चना भी रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलाएं।
  5. कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को अपनी थाली में से यही प्रसाद खाने को दें।
  6. अब कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें।
  7. जय माता दी कहकर उनके चरण छुएं और उनके प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास रखे कुंभ का जल सारे घर में बरसाएँ।

नवरात्रों का महत्त्व

नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृ्द्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं। सभी नवरात्रों में माता के सभी 51 पीठों पर भक्त विशेष रुप से माता एक दर्शनों के लिये एकत्रित होते हैं। जिनके लिये वहाँ जाना संभव नहीं होता है, उसे अपने निवास के निकट ही माता के मंदिर में दर्शन कर लेते हैं। नवरात्र शब्द, नव अहोरात्रों का बोध करता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक है। उपासना और सिद्धियों के लिये दिन से अधिक रात्रियों को महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू के अधिकतर पर्व रात्रियों में ही मनाये जाते हैं। रात्रि में मनाये जाने वाले पर्वों में दीपावली, होलिका दहन, दशहरा आदि आते हैं। शिवरात्रि और नवरात्रे भी इनमें से कुछ एक है। रात्रि समय में जिन पर्वों को मनाया जाता है, उन पर्वों में सिद्धि प्राप्ति के कार्य विशेष रुप से किये जाते हैं। नवरात्रों के साथ रात्रि जोड़ने का भी यही अर्थ है, कि माता शक्ति के इन नौ दिनों की रात्रियों को मनन व चिन्तन के लिये प्रयोग करना चाहिए।

धार्मिक महत्त्व

चैत्र और आश्चिन माह के नवरात्रों के अलावा भी वर्ष में दो बार गुप्त नवरात्रे आते हैं। पहला गुप्त नवरात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष व दूसरा गुप्त नवरात्रा माघ शुक्ल पक्ष में आता है। आषाढ और माघ मास में आने वाले इन नवरात्रों को गुप्त विधाओं की प्राप्ति के लिये प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन्हें साधना सिद्धि के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। तांन्त्रिकों व तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय और भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते हैं। इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है। इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्त्व कहा गया है।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

सोमवती अमावस्या: पीपल की परिक्रमा से मिलेगा अक्षय फल

आज (15 अक्तूबर, 2012) सोमवती अमावस्या का त्यौहार है. इस दिन पीपल के पेड़ के नीचे भगवन विष्णु और लक्ष्मी की पूजा करने से अक्षय धन और दांपत्य सुख की प्राप्ति बताई जाती है. सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। सोमवार चन्द्र को समर्पित दिन है। चन्द्र को अध्यात्म में मन का कारक माना गया है। इस दिन अमावस्या अर्थात बिना चन्द्र की अन्धेरी रात के पड़ने का अर्थ ही है कि मन सम्बन्धी दोषों के समाधान के लिये यह उत्तम दिन है। चूंकि शास्त्रों में चन्द्रमा को ही समस्त दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों का कारक माना गया है, अत: पूरे वर्ष में सामान्यत: एक या दो बार पड़ने वाले इस दिन का बहुत ज्यादा महत्व है। महाभारत में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को इस दिन के महत्व के बारे में बताते हुए कहते हैं कि इस दिन जो मनुष्य किसी नदी में स्नान करेगा, उसे समस्त कष्टों से मुक्ति मिलेगी।
 
सोमवती अमावस्या के सम्बन्ध में बहुत से प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। ‘निर्णय सिन्धु’ में इसके महत्व को विस्तार से बताया गया है। ग्रंथों में उल्लेख है कि इस दिन ‘अश्वत्थ’ अर्थात पीपल के वृक्ष की पूजा करने से पति के स्वास्थ्य में सुधार, न्यायिक समस्याओं से मुक्ति, आर्थिक परेशानियों का समाधान और अन्य कई समस्याओं का समाधान होता है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल के पेड़ का वास्तविक नाम अश्वत्थ है और इसे विष्णु स्वरूप माना जाता है। ‘पिप्पलाद’ ऋ षि ने इस पेड़ के नीचे तपस्या करके शनिदेव को प्रसन्न किया था, अत: इस पेड़ का नाम पीपल पड़ा। चूंकि 23 तारीख को शनि की स्थिति सामान्य से अच्छी है, अत: पीपल के पेड़ की विधिवत पूजा करने से अवश्य लाभ होगा। शास्त्रों में वर्णित है कि इस दिन मौन रह कर अपने इष्ट देव के मंत्रों का जाप करने और नदी या नदियों के संगम पर स्नान करने से पुण्य मिलता है और जीवन में आ रही समस्याओं का समाधान होता है।
 
सभी समस्याओं का होगा समाधान23 जनवरी को पड़ने वाली सोमवती अमवस्या का बहुत महत्व है, क्योंकि इस दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र है और दिन के उत्तरार्ध में मकर राशि में लग्नस्थ होने से यह दिन लगभग सभी कष्टों के समधान का दिन बन रहा है। मकर राशि का स्वामी शनि होता है, जो कि अभी गोचर में उच्च का होकर तुला राशि में दशमस्थ है। इसी दिन दोपहर बाद सर्वार्थ सिद्धि योग भी है। स्पष्ट है कि इस दिन स्वास्थ्य, शिक्षा,कानूनी विवाद,आर्थिक परेशानियों और पति-पत्नी सम्बन्धी विवाद के समाधान हेतु किये गये उपाय अवश्य सफल होंगे। वे जातक जिनकी कुंडली में शनि नीच का होकर मेष राशि में है और जीवन में व्यावसायिक परेशानियों से जूझ रहे हैं, वे आज के दिन पीपल के पेड़ पर तिल के तेल का दीपक जला कर रखें और ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का पेड़ के नीचे ही बैठ कर 108 जाप करें तो लाभ होगा।
 
यदि पति का स्वास्थ्य ठीक नहीं है व घर में मांगलिक कार्य भी नहीं हो रहे हों तो पीपल के पेड़ की 108 परिक्रमा या शारीरिक योग्यता के अनुसार परिक्रमा करते हुए सूत का धागा लपेटें। ‘नारायणाय नम:’ मंत्र का जाप करें। यदि किसी असाध्य बीमारी से ग्रस्त हैं या किसी पारिवारिक विवाद से परेशान हैं तो कोई भी पारिवारिक सदस्य संकल्प लेकर पीपल के पेड़ की 108 प्रदक्षिणा यानी चक्कर लगाये और प्रत्येक प्रदक्षिणा के पश्चात कोई भी एक मिठाई या मेवा रखे। केवल एक सोमवती अमावस्या को ही इस प्रक्रिया को करने से लाभ होता है। इस प्रक्रिया को कम से कम तीन सोमवती अमावस्या तक करने से समस्या से मुक्ति मिलती है। इस प्रक्रिया से पितृ दोष का भी समधान होता है। चूंकि सोमवार,शिव जी को समर्पित दिन है अत: सोमवती अमावस्या को शिवजी का अभिषेक या रुद्राभिषेक करने से पारिवारिक शांति मिलती है।
 
एक विधान यह भी
सोमवती अमावस्या के सम्बन्ध में शास्त्रों में एक कथा भी मिलती है, जिसके अनुसार एक कन्या की कुंडली मे विवाह योग नहीं होता। एक संत उसे धोबी के घर में जाकर सेवा करने से विवाह हो जाने की बात कहते हैं। वह कन्या ऐसा ही करती है और उसका विवाह हो जाता है। इस कथा के कारण ही यहां विधान भी है कि सोमवती अमावस्या के दिन अपने मनोरथों की पूर्ति के लिये लोग धोबी परिवार को भेंट इत्यादि देते हैं।

-डॉ. दत्तात्रेय होस्केरे

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

सर्व पितृ अमावस्या : भूले-बिसरे पितरों का भी श्राद्ध



सामान्यत: जीव के जरिए इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नरक। अपने पुण्य और पाप के आधार पर स्वर्ग और नरक भोगने के पश्चात् जीव पुन: अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है। जबकि पुण्यात्मा मनुष्य या देव योनि को प्राप्त करते हैं। अत: भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता और पूर्वजों के निमित्त कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसलिए भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म में पितृऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध करने की अनिवार्यता बताई गई है।
 
वस्तुत: शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविधि कल्याण प्रदान करता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को श्रृद्धापूर्वक शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए। भाद्र शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा से पितरों का दिन आरम्भ हो जाता है। जो सर्व पितृ विसर्जन अमावस्या तक रहता है। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि होती है मगर आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी मानी गई है। इस अमावस्या को सर्व पितृ विसर्जनी अमावस्या अथवा महालया के नाम से भी जाना जाता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कर पाते अथवा जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। शास्त्रीय मान्यता है कि अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते हैं। यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं। जिससे जीवन में पितृदोष के कारण अनेक कठिनाइयों और विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
 
सनातन धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्व है। यूं तो पूरे आश्विन कृष्ण पक्ष में हर दिन पितरों का निमित पिंडदान करना चाहिए, लेकिन 15 अक्टूबर को पितृपक्ष के दौरान सोमवार को बने सोमवती अमावस्या योग में सर्वपितृ श्राद्ध करना अतिशुभ है। ऐसी मान्यता है की सोमवती अमावस्या के दिन ज्ञात और अज्ञात तिथियों में मृत हुई आत्माओं का श्राद्ध करना शुभ होता है। शास्त्रों में भी इस बात का उल्लेख हैं कि अकाल मृत्यु वालों की अमावस्या के दिन गति करवाने से उस आत्मा को मुक्ति मिलती है, इसलिए श्राद्ध की अमावस्या को पितरों की तिथि के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन गच्छ छाया में तर्पण करने का विशेष मुहूर्त है। इसमें पिंडदान के साथ साथ योग्य ब्राह्मण को यथाशक्ति भोजन, फल, वस्त्र व इच्छानुसार दान जरूर देना चाहिए। सर्वपितृ अमावस्या के शुभ दिन स्नान दान का भी विशेष महत्व है। इस दिन हरिद्वार, पिहोवा व गया जैसे धार्मिक् तीर्थ स्थलों में पितरों का निमित पिंडदान करने के लिए प्रदेश के अलावा देश के अन्य राज्यों से भी हजारों की संख्या में लोग पहुंचते हैं।