उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

सोमवार, 31 मई 2010

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस

आज ३१ मई को विश्व तम्बाकू निषेध दिवस है। मई माह की भी अपनी महिमा है. मजदूर दिवस से आरंभ होकर यह तम्बाकू निषेध दिवस पर ख़त्म हो जाता है. दुनिया के 170 राष्ट्रों ने व्यापक तम्बाकू नियंत्रण संधि पर हस्ताक्षर तो किये हैं पर वास्तव में इस सम्बन्ध में कोई ठोस पहल नहीं की जाती है. इसके पीछे राजस्व नुकसान से लेकर कार्पोरेट जगत के निहित तत्व तक शामिल हैं, जिनकी सरकारों में जबरदस्त घुसपैठ होती है. ऐसे में तम्बाकू के धुँए का यह जहर धीरे-धीरे सुरसा के मुँह की तरह पूरी दुनिया को निगलने पर आमदा है. 450 ग्राम तम्बाकू में निकोटीन की मात्रा लगभग 22.8 ग्राम होती है। इसकी 6 ग्राम मात्रा से एक कुत्ता 3 मिनट में मर जाता है। तम्बाकू के प्रयोग से अनेक दंत रोग, मंदाग्नि रोग हो जाता है। आंखों की ज्योति कम हो सकती है तो दुष्प्रभाव रूप में व्यक्ति बहरा व अन्धा तक हो जाता है। तम्बाकू के निकोटीन से ब्लड प्रेशर बढ़ता है, रक्त संचार मंद पड़ जाता है।फेफड़ों की टीबी तो इसका सीधा प्रभाव देखा जा सकता है. यही नहीं तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति नपुंसक भी हो सकता है। कहना गलत न होगा कि तम्बाकू का नियमित सेवन धीरे-धीरे व्यक्ति को मृत्यु के करीब ला देता है और वह असमय ही काल-कवलित हो जाता है.

अकेले भारत में हर साल लगभद आठ लाख मौतें तम्बाकू से होने वाली बीमारियों के कारण होती हैं।आज बच्चे-बूढ़े-जवान से लेकर पुरुष-नारी तक सभी वर्गों में तम्बाकू की लत देखी जा सकती है. कभी फैशन में तो,कभी नशे के चस्के में और कई बार थकान मिटाने या गम भुलाने की आड़ में भी इसे लिया जा रहा है. घर में बड़ों द्वारा लिए जा रहा तम्बाकू कब छोटों के पास पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता. दुर्भाग्यवश भारत में धर्म की आड में भी तम्बाकू का स्वाद लेने वालों की कमी नहीं है. गौरतलब है कि आयुर्वेद के चरक तथा सुश्रुत जैसे हजारों वर्ष पूर्व रचे गए ग्रन्थों में धूम्रपान का विधान है। वैसे, वहाँ पर उसका वर्णन औषधि के रूप में हुआ है, जैसे कहा गया है कि आम के सूखे पत्ते को चिलम जैसी किसी उपकरण में रखकर धुआं खींचने से गले के रोगों में आराम होता है। दमा तथा श्वास संबंधी रोगों में वासा (अडूसा) के सूखे पत्तों को चिलम में रखकर पीना एक प्रभावशाली उपाय माना गया है। आज भी ऐसे लोग मिल जायेंगे जो तम्बाकू को दवा बताते हैं. पवित्र तीर्थस्थलों पर धूनी पर बैठकर सुलफा, गांजा अथवा तम्बाकू के दम लगाने वालों तथाकथित बाबाओं की तो पूरी फ़ौज ही भरी पड़ी है. सरकारी दफ्तरों में तम्बाकू या धूम्रपान का सेवन करते पकड़े गए तमाम लोगों ने इसे अपने पक्ष में उपयोग किया है. पर ऐसे लोग उस पक्ष को भूल जाते हैं, जहाँ स्कन्दपुराण में कहा गया है कि-"स्वधर्म का आचरण करके जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह धूम्रपान से नष्ट हो जाता है। इस कारण समस्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि को इसका सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।''

इधर हाल के वर्षों में जिस तरह से इसने तेजी से महिलाओं को चंगुल में लेना आरंभ किया है, वह पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक बन चुका है. अधिकतर महिलाओं का यह नशा उनकी अगली पीढ़ी में भी जा रहा है क्योंकि मातृत्व की स्थिति में इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ना तय है. अब तो महिलाओं के लिए बाकायदा अलग से तम्बाकू उत्पाद भी बनने लगे हैं. स्कूल जाते लड़के-लड़कियां कम उम्र में ही इनका लुत्फ़ उठाने लगे हैं. उस पर से विज्ञापनों की चकाचौंध भी उन्हें इसका स्वाद लेने की तरफ अग्रसर करती है. फिल्मों-धारावाहिकों में जिस धड़ल्ले से नायक-नायिकाएं तम्बाकू वाले सिगरेट या सिगार को स्टाइल में पीते नजर आते हैं, वह नवयुवकों-नवयुवतियों पर गहरा असर डालता है. ऐसे में यह पता होते हुए भी कि यह स्वस्थ्य के अनुकूल नहीं है, यह स्टेट्स सिम्बल या फैशन का प्रतीक बन जाता है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद घाटे की भरपाई और बदलते मूल्यों के चक्कर में पहली बार व्यावसायिक कंपनियों ने तम्बाकू उत्पादों की बिक्री के लिए महिलाओं का इस्तेमाल करना आरंभ किया. लारीवार्ड कंपनी ने पहल करते हुए पहली बार तम्बाकू उत्पादों के विज्ञापन हेतु सर्वप्रथम 1919 में महिलाओं के चित्रों का उपयोग किया। इसके अगले साल ही सिगरेट को नारी- स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया। 1927 के दौर में तो बाकायदा मार्लबोरो ब्रांड में सिगरेट को फैशन व दुबलेपन से जोड़ कर पेश किया गया. इसी के साथ ही कई नामी-गिरामी कंपनियों ने तमाम अभिनेत्रियों को तम्बाकू उत्पादों के कैम्पेन से जोड़ना आरंभ किया। बाद के वर्षों में जैसे -जैसे नारी-स्वातंत्र्य के नारे बुलंद होते गए, स्लिम होने को फैशन-स्टेटमेंट माना जाने लगा, इन कंपनियों ने भी इसे भुनाना आरंभ कर दिया. फिलिप मौरिस कंपनी ने 60 के दशक में बाकायदा वर्जिनिया स्लिम्स नाम से मार्केटिंग अभियान आरंभ किया,जिसकी पंच लाइन थी -'यू हैव कम ए लांग वे बेबी.' इसके बाद तो लगभग हर कंपनी ही तम्बाकू उत्पादों के प्रचार के लिए नारी माडलों व फ़िल्मी नायिकाओं का इस्तेमाल कर रही है. ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इस वर्ष तम्बाकू निषेध दिवस पर महिलाओं पर फोकस किया जाना महत्वपूर्ण व प्रासंगिक भी है. गौरतलब है कि भारत कि कुल जितनी आबादी है, लगभग उतने ही लोग दुनिया में धुम्रपान करने वाले भी हैं, अर्थात 1 अरब से ज्यादा. इस 1 अरब में धूम्रपान करने वाली करीब 20 फीसदी महिलाएं भी शामिल हैं. आज महिलाओं में धूम्रपान का यह शौक भारत में भी बखूबी देखने को मिलता है. यह अक्सर या तो हाई सोसाईटी में या समाज के निचले तबके में बखूबी देखने को मिलता है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत में करीब 1.4 फीसदी महिलायें धूम्रपान और करीब 8.4 फीसदी महिलायें खाने योग्य तम्बाकू का सेवन करती है। ऐसे में तम्बाकू सेवन से उनमें तमाम रोग व विकार उत्पन्न होते हैं. इनमें श्वांस सम्बन्धी बीमारी, फेफड़े का कैंसर, दिल का दौरा, निमोनिया, माहवारी सम्बंधित समस्याएं एवं प्रजनन विकार जैसी बीमारियाँ शामिल हैं. यही नहीं तम्बाकू का नियमित सेवन करने वाली महिलाओं में अक्सर पूर्व-प्रसव भी देखा गया हाई तथा पैदा होने वाले बच्चे औसत वजन से लगभग 400-500 ग्राम कम के पैदा होते हैं. इसके साथ ही तम्बाकू सेवन करने वाली महिलाओं में गर्भपात की दर भी सामान्य महिलाओं की तुलना में 95 फीसदी ज्यादा होती है।वाकई आज जरुरत है कि इस ओर गंभीर पहल की जाय. इन्हीं सबके चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन अब तम्बाकू-उत्पादों का भ्रामक बाजारीकरण, जिसमें परोक्ष-अपरोक्ष रूप में तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रायोजित किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध लगाना भी शामिल है, के बारे में भी सोच रहा है. जानकर आश्चर्य होगा कि तम्बाकू कंपनियाँ हर साल विज्ञापन पर करीब दस अरब रूपये खर्च करतीं हैं. पर बेहतर होगा कि सरकारों और संगठनों की बजाय इस सम्बन्ध में अपने घर और उससे पहले खुद से शुरुआत की जाय ताकि तम्बाकू की यह विषबेल समय से पहले ही सभ्यताओं को न लील ले. क्योंकि Active रूप में जहाँ यह खुद के लिए घातक है, वही Passive रूप में हमारे परिवेश, परिवार, समाज और अंतत: पूरी सभ्यता को लीलने के लिए तैयार बैठी है !!

सोमवार, 10 मई 2010

10 मई 1857 की याद में

10 मई का भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इसी दिन आरंभ हुआ था। 1857 वह वर्ष है, जब भारतीय वीरों ने अपने शौर्य की कलम को रक्त में डुबो कर काल की शिला पर अंकित किया था और ब्रिटिश साम्राज्य को कड़ी चुनौती देकर उसकी जडे़ं हिला दी थीं। 1857 का वर्ष वैसे भी उथल-पुथल वाला रहा है। इसी वर्ष कैलिफोर्निया के तेजोन नामक स्थान पर 7.9 स्केल का भूकम्प आया था तो टोकियो में आये भूकम्प में लगभग एक लाख लोग और इटली के नेपल्स में आये 6.9 स्केल के भूकम्प में लगभग 11,000 लोग मारे गये थे। 1857 की क्रान्ति इसलिये और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि ठीक सौ साल पहले सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त कर राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेजी राज की भारत में नींव डाली थी। विभिन्न इतिहासकारों और विचारकांे ने इसकी अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायें की हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और महान चिन्तक पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि- ‘‘यह केवल एक विद्रोह नहीं था, यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जन विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था।’’ बेंजमिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे ‘‘राष्ट्रीय विद्रोह’’ बताया। प्रखर विचारक बी0डी0सावरकर व पट्टाभि सीतारमैया ने इसे ”भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम”, जाॅन विलियम ने ”सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष“ व जाॅन ब्रूस नाॅर्टन ने ‘‘जन-विद्रोह’’ कहा। माक्र्सवादी विचारक डा0 राम विलास शर्मा ने इसे संसार की प्रथम साम्राज्य विरोधी व सामन्त विरोधी क्रान्ति बताते हुए 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम महत्वपूर्ण कड़ी बताया। प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक विचारक मैजिनी तो भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे और उनके अनुसार इसका असर तत्कालीन इटली, हंगरी व पोलैंड की सत्ताओं पर भी पड़ेगा और वहाँ की नीतियाँ भी बदलेंगी।

1857 की क्रान्ति को लेकर तमाम विश्लेषण किये गये हैं। इसके पीछे राजनैतिक-सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक सभी तत्व कार्य कर रहे थे, पर इसका सबसे सशक्त पक्ष यह रहा कि राजा-प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, पुरूष-महिला सभी एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। 1857 की क्रान्ति को मात्र सैनिक विद्रोह मानने वाले इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि कई ऐसे भी स्थान थे, जहाँ सैनिक छावनियाँ न होने पर भी ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध क्रान्ति हुयी। इसी प्रकार वे यह भूल जाते है कि वास्तव में ये सिपाही सैनिक वर्दी में किसान थे और किसी भी व्यक्ति के अधिकारों के हनन का सीधा तात्पर्य था कि किसी-न-किसी सैनिक के अधिकारों का हनन, क्योंकि हर सैनिक या तो किसी का पिता, बेटा, भाई या अन्य रिश्तेदार है। यह एक तथ्य है कि अंगे्रजी हुकूमत द्वारा लागू नये भू-राजस्व कानून के खिलाफ अकेले सैनिकों की ओर से 15,000 अर्जियाँ दायर की गयी थीं। डाॅ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के शब्दों में- ‘‘सन् 1857 की क्रान्ति को चाहे सामन्ती सैलाब या सैनिक गदर कहकर खारिज करने का प्रयास किया गया हो, पर वास्तव में वह जनमत का राजनीतिक-सांस्कृतिक विद्रोह था। भारत का जनमानस उसमें जुड़ा था, लोक साहित्य और लोक चेतना उस क्रान्ति के आवेग से अछूती नहीं थी। स्वाभाविक है कि क्रान्ति सफल न हो तो इसे ‘विप्लव’ या ‘विद्रोह’ ही कहा जाता है।’’ यह क्रान्ति कोई यकायक घटित घटना नहीं थी, वरन् इसके मूल में विगत कई सालों की घटनायें थीं, जो कम्पनी के शासनकाल में घटित होती रहीं। एक ओर भारत की परम्परा, रीतिरिवाज और संस्कृति के विपरीत अंग्रेजी सत्ता एवं संस्कृति सुदृढ हो रही थी तो दूसरी ओर भारतीय राजाओं के साथ अन्यायपूर्ण कार्रवाई, अंग्रेजों की हड़पनीति, भारतीय जनमानस की भावनाओं का दमन एवं विभेदपूर्ण व उपेक्षापूर्ण व्यवहार से राजाओं, सैनिकों व जनमानस में विद्रोह के अंकुर फूट रहे थे।

इसमें कोई शक नहीं कि 1757 से 1856 के मध्य देश के विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा कई विद्रोह किये गये। यद्यपि अंग्रेजी सेना बार-बार इन विद्रोहों को कुचलती रही पर उसके बावजूद इन विद्रोहों का पुनः सर उठाकर खड़ा हो जाना भारतीय जनमानस की जीवटता का ही परिचायक कहा जायेगा। 1857 के विद्रोह को इसी पृष्ठभूमि में देखे जाने की जरूरत है। अंग्रेज इतिहासकार फॅारेस्ट ने एक जगह सचेत भी किया है कि- ‘‘1857 की क्रान्ति हमें इस बात की याद दिलाती है कि हमारा साम्राज्य एक ऐसे पतले छिलके के ऊपर कायम है, जिसके किसी भी समय सामाजिक परिवर्तनों और धार्मिक क्रान्तियों की प्रचण्ड ज्वालाओं द्वारा टुकडे़-टुकडे़ हो जाने की सम्भावना है।’’ अंग्रेजी हुकूमत को भी 1757 से 1856 तक चले घटनाक्रमों से यह आभास हो गया था कि वे अब अजेय नहीं रहे। तभी तो लाॅर्ड केनिंग ने फरवरी 1856 में गर्वनर जनरल का कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व कहा था कि - ‘‘मैं चाहता हूँ कि मेरा कार्यकाल शान्तिपूर्ण हो। मैं नहीं भूल सकता कि भारत के गगन में, जो अभी शान्त है, कभी भी छोटा सा बादल, चाहे वह एक हाथ जितना ही क्यों न हो, निरन्तर विस्तृत होकर फट सकता है, जो हम सबको तबाह कर सकता है।’’ लाॅर्ड केनिंग की इस स्वीकारोक्ति में ही 1857 की क्रान्ति के बीज छुपे हुये थे।

1857 की क्रान्ति की सफलता-असफलता के अपने-अपने तर्क हैं पर यह भारत की आजादी का पहला ऐसा संघर्ष था, जिसे अंग्रेज समर्थक सैनिक विद्रोह अथवा असफल विद्रोह साबित करने पर तुले थे, परन्तु सही मायनों में यह पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति पाने का राष्ट्रीय फलक पर हुआ प्रथम महत्वपूर्ण संघर्ष था। अमरीकी विद्वान प्रो0 जी0 एफ0 हचिन्स के शब्दों में-‘‘1857 की क्रान्ति को अंग्रेजों ने केवल सैनिक विद्रोह ही कहा क्योंकि वे इस घटना के राजद्रोह पक्ष पर ही बल देना चाहते थे और कहना चाहते थे कि यह विद्रोह अंग्रेजी सेना के केवल भारतीय सैनिकों तक ही सीमित था। परन्तु आधुनिक शोध पत्रों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आरम्भ से सैनिक विद्रोह के ही रूप में हुआ, परन्तु शीघ्र ही इसमें लोकप्रिय विद्रोह का रूप धारण कर लिया।’’ वस्तुतः इस क्रान्ति को भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध पहली प्रत्यक्ष चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। यह आन्दोलन भले ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति न दिला पाया हो, लेकिन लोगों में आजादी का जज्बा जरूर पैदा कर गया। 1857 की इस क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका कहा है, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गयी। 1857 के संग्राम की विशेषता यह भी है कि इससे उठे शंखनाद के बाद जंगे-आजादी 90 साल तक अनवरत चलती रही और अंतत: 15 अगस्त, 1947 को हम आजाद हुए !!

रविवार, 9 मई 2010

मदर्स डे पर : माँ की याद में

आज सुबह कुछ पहले ही नींद खुल गई. मन किया कि बाहर जाकर बैठूं. अभी सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिए थे पर ढेर सारी चिड़िया कलरव कर रही थीं. मौसम में हलकी सी ठण्ड थी, शायद रात में बारिश हुई थी. अचानक दिमाग में ख्याल आया कि हम लोग भी घर से कितने दूर हैं. एक ऐसी जगह जहाँ सारे रिश्ते बेगाने हैं. एक-दो साल बाद हम लोग भी यहाँ से चले जायेंगे. इन सबके बीच घर की याद आई तो मम्मी का चेहरा आँखों के सामने घूम गया. कभी सोचा भी ना था की मम्मी से एक दिन इतने दूर जायेंगे, पर दुनिया का रिवाज है. शादी के बाद सबको अपनी नई दुनिया में जाना होता है, बस रह जाती हैं यादें. पर यादें जीवन भर नहीं छूटतीं , हमें अपने आगोश में लिए रहती हैं. ..पर आज पता नहीं क्यों सुबह-सुबह मम्मी की खूब याद आ रही थी. सोचा कि फोन करूँ तो याद आया कि वहाँ तो अभी सभी लोग सो रहे होंगे. सामने नजर दौडाई तो पतिदेव कृष्ण कुमार जी का काव्य-संग्रह 'अभिलाषा' दिखी. पहला पन्ना पलटते ही 'माँ' कविता पर निगाहें ठहर गईं. एक बार नहीं कई बार पढ़ा. वाकई यह कविता दिल के बहुत करीब लगी. अंतर्मन के मनोभावों को बखूबी संजोया गया है इस अनुपम कविता में. सौभाग्यवश आज मई माह का दूसरा रविवार है और इसे दुनिया में मदर्स डे के रूप में मनाया जाता है. तो आज इस विशिष्ट दिवस पर माँ को समर्पित यही कविता आप लोगों के साथ शेयर कर रही हूँ-


मेरा प्यारा सा बच्चा
गोद में भर लेती है बच्चे को
चेहरे पर नजर न लगे
माथे पर काजल का टीका लगाती है
कोई बुरी आत्मा न छू सके
बाँहों में ताबीज बाँध देती है।

बच्चा स्कूल जाने लगा है
सुबह से ही माँ जुट जाती है
चैके-बर्तन में
कहीं बेटा भूखा न चला जाये।
लड़कर आता है पड़ोसियों के बच्चों से
माँ के आँचल में छुप जाता है
अब उसे कुछ नहीं हो सकता।

बच्चा बड़ा होता जाता है
माँ मन्नतें माँगती है
देवी-देवताओं से
बेटे के सुनहरे भविष्य की खातिर
बेटा कामयाबी पाता है
माँ भर लेती है उसे बाँहों में
अब बेटा नजरों से दूर हो जायेगा।

फिर एक दिन आता है
शहनाईयाँ गूँज उठती हैं
माँ के कदम आज जमीं पर नहीं
कभी इधर दौड़ती है, कभी उधर
बहू के कदमों का इंतजार है उसे
आशीर्वाद देती है दोनों को
एक नई जिन्दगी की शुरूआत के लिए।

माँ सिखाती है बहू को
परिवार की परम्परायें व संस्कार
बेटे का हाथ बहू के हाथों में रख
बोलती है
बहुत नाजों से पाला है इसे
अब तुम्हें ही देखना है।

माँ की खुशी भरी आँखों से
आँसू की एक गरम बूँद
गिरती है बहू की हथेली पर।

शनिवार, 1 मई 2010

श्रम की महत्ता का अहसास : मजदूर दिवस

श्रम व्यक्ति के जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है। मेहनतकश मजदूरों के श्रम को श्रेष्ठ दर्जा देने और प्रोत्साहित करने के लिए 1 मई को पूरे विश्व में मजदूर दिवस के रुप में मनाया जाता है। इसके इतिहास में जाएँ तो उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दौर में श्रमिकों में हक के प्रति जागरूकता पैदा हुई । शिकागो में उन्होंने रैलियों, आमसभाओं आदि के माध्यम से अपने अधिकारों, पारिश्रमिक के लिए आग्रह करना आरंभ किया। धीरे-धीरे इन प्रयासों का असर बढ़ा और 1886 से 1889 तक आसपास के देशों में भी मजदूर और कर्मचारियों में अपने हक के प्रतिफल के लिए जागृति आ गई।

यह शिकागो विरोध काफी प्रसिध्द हुआ और 1890 में जब 1 मई को इसकी पहली वर्षगांठ मनाई गई तभी से मई दिवस मनाने का चलन आरंभ हुआ। मजदूरों ने आठ घंटे से अधिक काम लेने का विरोध करते हुए उचित पारिश्रमिक भुगतान की मांगे रखीं। इसके लिए यूनियन बनीं, धरने, भूख हड़ताल , रैलियां श्रमिकों के हथियार बन गये।अंतत: मई दिवस, श्रमिकों के लिए उत्सव का पर्याय बन गया. एक मई को सभी संस्थाओं में श्रमिकों को अवकाश दिया जाने लगा। आज श्रमिक दिवस हमें श्रम की महत्ता का अहसास कराता है !!