
बढ़ती जनसंख्या के प्रति विश्वव्यापी चिंता के कारण इस समय विश्व भर में शिशु-जन्मदर में कुछ कमी हो रही है, लेकिन दूसरी ओर स्वास्थ्य और चिकित्सा संबंधी बढ़ती सुविधाओं के कारण औसत आयु में निरन्तर वृद्धि हो रही है। यह औसत आयु अलग-अलग देशों में अलग-अलग है। भारत में सन 1947 में यह औसत आयु केवल 27 वर्ष थी, जो 1961 में 42 वर्ष, 1981 में 54 वर्ष और अब लगभग पैंसठ वर्ष तक पहुंच गयी है। साठ से अधिक आयु के लोगों की संख्या में वृद्धि हमारे यहां विशेष रूप में 1961 से प्रारम्भ हुई, जो चिकित्सा सुविधाओं के प्रसार के साथ-साथ निरन्तर बढ़ती चली गयी। हमारे यहां 1991 में 60 वर्ष से अधिक आयु के 5 करोड़ 60 लाख व्यक्ति थे। जो 2007 में बढ़कर 8 करोड़ 40 लाख हो गये। देश में सबसे अधिक बुजुर्ग केरल में हैं। वहां कुल जनसंख्या में 11 प्रतिशत बुजुर्ग हैं, जबकि सम्पूर्ण देश में यह औसत लगभग 8प्रतिशत है।
वृद्धजन सम्पूर्ण समाज के लिए अतीत के प्रतीक, अनुभवों के भंडार तथा सभी की श्रद्धा के पात्र हैं। समाज में यदि उपयुक्त सम्मान मिले और उनके अनुभवों का लाभ उठाया जाए तो वे हमारी प्रगति में विशेष भागीदारी भी कर सकते हैं। इसलिए बुजुर्गों की बढ़ती संख्या हमारे लिए चिंतनीय नहीं है। चिंता केवल इस बात की होनी चाहिए कि वे स्वस्थ, सुखी और सदैव सक्रिय रहें।
वृद्धों की समस्या पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में सर्वप्रथम अर्जेंटीना ने विश्व का ध्यान आकर्षित किया था। तब से लेकर अब तक वृद्धों के संबंध में अनेक गोष्ठियां और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं। वर्ष 1999 को अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग-वर्ष के रूप में भी मनाया गया। इससे पूर्व 1982 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘वृद्धावस्था को सुखी बनाइए’ जैसा नारा दिया और ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का अभियान प्रारम्भ किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रथम अक्तूबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध-दिवस’ के रूप में घोषित किया हुआ है और इस रूप में विश्वभर में इसका आयोजन भी किया जाता है। इन सब बातों से वृद्ध व्यक्तियों के प्रति लोगों में सम्मान और संवेदना के भाव जागे और उनके स्वास्थ्य तथा आर्थिक समस्याओं के समाधान पर विशेष ध्यान दिया गया। वृद्धावस्था की बीमारियों के लिए अनेक औषधियों का आविष्कार किया गया और अनेक स्थानों पर अस्पतालों में उनके लिए विशेष व्यवस्था की गयी। लगभग सभी पश्चिमी देशों में आर्थिक समस्या से जूझते वृद्धों के लिए पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था की गयी है, जिससे उनका खर्च आराम से चल जाता है। वहां के बुजुर्गों के सामने अब सामान्यत: आर्थिक संकट नहीं है। उनके सामने स्वास्थ्य के अतिरिक्त मुख्य समस्या अकेलेपन की है। वयस्क होने पर बच्चे अलग रहने लगते हैं और केवल सप्ताहान्त या अन्य विशेष अवसरों पर ही वे उनसे मिलने आते हैं। कभी-कभी उनसे मिले महीने या वर्ष भी गुजर जाते हैं। बीमारी के समय उन्हें सान्त्वना देेने वाला सामान्यत: उनका कोई भी अपना उनके पास नहीं होता।
हमारे यहां प्राचीन भारत में बुजुर्गों के प्रति विशेष सम्मान और आदर की भावना थी। वे सदैव परिवार के मुखिया रहते और उन्हीं के मार्ग-निर्देशन में परिवार की गतिविधियां आगे बढ़तीं। छोटों के द्वारा बड़ों के चरणस्पर्श और बड़ों के द्वारा छोटों को आशीर्वाद की पंरपरा ने अपनत्व की इस भावना को सदैव मजबूत बनाये रखा। संयुक्त परिवार की प्रथा ने आबाल वृद्ध नर-नारी सभी को आपसी प्रेम की माला में पिरोये रखा। किन्तु कालान्तर में संयुक्त परिवार की प्रथा चरमराने लगी और धीरे-धीरे वह समाप्तप्राय हो गयी। चरण छूने और आशीर्वाद की परंपरा भी अब औपचारिकता बनकर रह गयी हैं। पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हमारे नवयुवक भी विवाह के उपरान्त अपना-अलग घर बसाने लगे हैं। इससे समाज में वृद्धों की स्थिति दयनीय होती चली गयी। अनेक राज्य सरकारों ने अपने यहां बेसहारा वृद्धों के लिए पेंशन की व्यवस्था की हुई है, मगर वह इतनी कम है कि उससे दो वक्त का भोजन जुटाना भी मुश्किल हो जाता है। फिर व्यवस्था की उलझनों के कारण उस पेंशन को प्राप्त करना भी टेढ़ी खीर है। राज्यसेवा में रहे व्यक्तियों को अवश्य ही अपनी पेंशन के कारण आर्थिक संकट की आशंका नहीं रहती, मगर बीमारी के समय उनके लिए भी किसी अपने के अभाव में भयानक परेशानी हो जाती है। अवश्य ही, जिन परिवारों में थोड़े बहुत पुराने संस्कार शेष हैं, वहां के बुजुर्ग अपने इस अकेलेपन की पीड़ा से एक सीमा तक मुक्त रह पाते हैं।
वृद्धावस्था के अभिशाप के दो पहलू हैं। एक सामाजिक और दूसरा व्यक्तिगत। सामाजिक पहलू यह है कि समाज में उन्हें यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं होता। उन्हें अनुपयोगी और निरर्थक माना जाता है। उनके पास समय बिताने का या मनोरंजन का कोई साधन नहीं है। नवयुवक उन्हें अपनी प्रगति के मार्ग में बाधा मानते हैं और उनके साथ किसी प्रकार का वैचारिक सामंजस्य नहीं रख पाते।
समस्या का व्यक्तिगत पहलू और भी अधिक दुरूह है। समाज की उपेक्षा से वे अपने को कुंठित और निराश महसूस करते हैं। मौत अवश्यम्भावी है, यह वे भी जानते हैं। मगर वह मौत कब, कैसे और किन तकलीफों के साथ होगी, इस बारे में तरह-तरह की आशंकाएं उन्हें सदैव घेरे रहती हैं। उनकी शारीरिक और मानसिक शक्ति का निरंतर क्षय होता जाता है, जिससे वे स्वयं अपने शरीर का काम भी भली प्रकार नहीं कर पाते। दूसरों पर निर्भरता काफी अधिक बढ़ जाती है। आमदनी का कोई साधन न होने पर आर्थिक संकट उन्हें सबसे अधिक तंग करता है।
वृद्ध महिलाओं के लिए कुछ विशेष समस्याएं भी हैं। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण हमारे यहां सामान्यत: वृद्ध पुरुष को ही परिवार का मुखिया माना जाता है और इसी रूप में परिवार से बाहर वालों के सामने उसे प्रस्तुत किया जाता है। इसलिए कम से कम दिखावे के लिए वृद्ध पुरुषों के प्रति सम्मान की औपचारिक प्रथा कमोबेश रूप में बनी रहती है। यदि वह वृद्ध पुरुष पेंशन या अन्य किसी साधन से कुछ कमाता है, तब उसका सम्मान भी बढ़ जाता है। पेंशन प्राप्त करने वाली या अन्य किसी उत्पादक कार्य अथवा गृहकार्य में योगदान करने वाली महिला के साथ भी सम्मान की यह भावना कमोबेश रूप में जुड़ी रहती है। लेकिन अन्य महिलाओं की स्थिति बेहद खराब होती है। बहू-बेटे का व्यवहार अधिकांशत: उसके प्रति अभद्र और आपत्तिजनक होता है। हमारे यहां विधवाओं की स्थिति तो बेहद दयनीय है। किसी भी शुभ कार्य में उन्हें अपशकुन माना जाता है और उन्हें ऐसे कार्यों से दूर रखकर उन्हें मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जाता है।
प्रश्न उठता है वृद्ध व्यक्तियों के सम्मुख उपस्थित समस्याओं का समाधान क्या हो? हमें सर्वप्रथम तो उन्हें आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाने पर ध्यान देना होगा। इस संदर्भ में मुख्य समस्या उन लोगों की हैं, जो न तो किसी उत्पादक कार्य में लगे हैं और न उन्हें कोई पेंशन मिलती है। इनमें कुछ लोग इतने शक्तिहीन और निर्बल हो चुके हैं कि वे कोई काम कर ही नहीं सकते। ऐसे बेसहारा वृद्ध व्यक्तियों के लिए सरकार की ओर से आवश्यक रूप से और सहज रूप मे मिल सकने वाली पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसे वृद्ध व्यक्ति जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हैं, उनके लिए समाज को कम परिश्रम वाले हल्के-फुल्के रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए।
वृद्धों के कल्याण के लिए इस प्रकार के कार्यक्रमों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए, जो उनमें जीवन के प्रति उत्साह उत्पन्न करे। इसके लिए उनकी रुचि के अनुसार विशेष प्रकार की योजनाएं भी लागू की जा सकती हैं। स्वयं वृद्धजन को भी अपने तथा परिवार और समाज के हित के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरणार्थ युवा परिजनों के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें और उन्हें अपने ढंग से जीवन जीने दें। उन्हें अपने खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। सदैव हल्का, सादा और स्वास्थ्यवद्र्धक भोजन लेना चाहिए। अपने को सदैव तनाव से दूर रखें और यथासंभव नित्यप्रति हल्का और नियमित व्यायाम करें। प्रात: और संध्या को नित्य घूमना उनके लिए विशेष उपयोगी है। अपने को यथासंभव व्यस्त रखें और निराशा को कभी भी अपने पास न फटकने दें। सदैव शांत, संतुष्ट और संयमित जीवन बितायें। समाज के लिए कुछ उपयोगी कार्य करने का सदैव प्रयत्न करें।
प्रो. योगेश चन्द्र शर्मा
साभार : दैनिक ट्रिब्यून