गुरूब्र्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः
गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः
भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परम्परा रही है। प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।
आजादी के बाद गुरू-शिष्य की इस दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डाॅ0 राधाकृष्णन ने कहा कि-‘‘मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा।‘‘ तब से लेकर हर 5 सितम्बर को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाया जाता है। डाॅ0 राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने के हकदार वही हैं, जो लोगों से अधिक बुद्विमान व अधिक विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डाॅ0 राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डाॅ0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते हैं। यह राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्याार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। यही नहीं तमाम शिक्षक अपनी नैतिक मर्यादायें तोड़कर छात्राओं के साथ अश्लील कार्यों में लिप्त पाये गये। आज न तो गुरू-शिष्य की वह परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।
गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः
भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परम्परा रही है। प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।
आजादी के बाद गुरू-शिष्य की इस दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डाॅ0 राधाकृष्णन ने कहा कि-‘‘मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा।‘‘ तब से लेकर हर 5 सितम्बर को ‘‘शिक्षक दिवस‘‘ के रूप में मनाया जाता है। डाॅ0 राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने के हकदार वही हैं, जो लोगों से अधिक बुद्विमान व अधिक विनम्र हों। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। डाॅ0 राधाकृष्णन शिक्षा को जानकारी मात्र नहीं मानते बल्कि इसका उद्देश्य एक जिम्मेदार नागरिक बनाना है। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डाॅ0 राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते हैं। यह राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरू-शिष्य की परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्याार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। यही नहीं तमाम शिक्षक अपनी नैतिक मर्यादायें तोड़कर छात्राओं के साथ अश्लील कार्यों में लिप्त पाये गये। आज न तो गुरू-शिष्य की वह परंपरा रही और न ही वे गुरू और शिष्य रहे। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।
8 टिप्पणियां:
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (6/9/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
vicharon ka khoosurti se chitran badhai
वक़्त के साथ काफी बदलाव आये हैं, पर दुर्भाग्यवश यह नकारत्मक हैं...इस ओर सोचने की जरुरत है. डा0 राधाकृष्ण जी का व्यक्तित्व अनुकरणीय है...शानदार प्रस्तुति..बधाई.
बड़ा सटीक विश्लेषण...उत्तम पोस्ट.
शिक्षक दिवस पर बदलते परिवेश में सुन्दर पोस्ट...साधुवाद स्वीकारें.
शिक्षक दिवस पर बदलते परिवेश में सुन्दर पोस्ट...साधुवाद स्वीकारें.
व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। ऐसे में जरूरत है कि गुरू और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके...Uttam Vichar.
Jaisa ki aapne swam kaha dhan ke karan hi purani parampra tooti hai.aaj guru log shishyon ki nakal me sadkon par vetan ko lekar sangharsh karte hain.tab sarkar man jati hai.Sudhar kaise ho.
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